लकीर

डॉ. अंकिता गुप्ता (अंक: 166, अक्टूबर प्रथम, 2020 में प्रकाशित)

लकीरें हैं तो रहने दो, 
अपना मन मैला न होने दो। 
ये तो अंग्रेज़ों की हुकूमत का सिला है, 
जो सीमाओं में ढला है,
ख़ुद को लकीर के बंधन में ना बँधने दो, 
लकीरें है तो रहने दो। 
 
चन्द्रमा तो मासूम है,
उसके भ्रमण को, 
त्योहारों में ना बँटने दो।
राम की पूजा, और रहीम की दुआ को, 
मज़हब में ना बँटने दो। 
 
भू और समुद्र तो अनजान हैं, 
फ़सल और नौका के तारक हैं, 
उन पर अधिकार के लिए,  
एक दूजे से बैर ना होने दो।
 
रंग तो बेज़ुबां है,
केसरी हो या हरा हो, 
उन्हें एक जुट होकर इंद्रधनुष में ही सजने दो,
रंगों से इंसान का भेदभाव ना होने दो।
 
ये सियासती मामले हैं, 
इनमें ख़ुद को ना उलझने दो 
चित्त से इंसानियत, ओझल ना होने दो
लकीरें हैं तो रहने दो।
 

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