लकीर और तक़दीर का
संगम टटोलता हूँ
संघर्ष की राख में
ख़ुशी से मचलता हूँ॥
कौन हूँ? ...
संघर्ष से भयभीत प्राणी!
बेटियाँ समाज में
होतीं प्रताड़ित
प्रतिध्वनि कराह की
चहुँदिश प्रसारित॥
कौन हूँ?…
सक्षम परन्तु मूक बधिर!
तन तरसता वस्त्र को
वस्त्र है, निर्वस्त्र क्यों?
ढका है तू देह से
मन तेरा निर्वस्त्र क्यों?
कौन हूँ?…
मानसिक रूप से निर्वस्त्र!
अन्न की बर्बादी और
बढ़ती आबादी क्यों?
फँसा है मझधार में
पतवार से इनकार क्यों?
कौन हूँ?...
मझधार को समर्पित निरीह॥
Shandra rachna
बहुत ही सुन्दर जहीर भाई। शुभकामनायें आपको।
Very nice Zahir
Very nicely expressed.. Needs attention
Very well written...
Masallah
Masallah Bahut hi umda
Sab kuch keh gaye apne es poem ke madhyam se.. Nice dear
Very nice
अति सुंदर।
Khoob likhte ho.
Apke alfass Dil Ko chu Gye...
Nice
Mast hai sir ji
Very nice
Nice
संघर्ष ही अपने आप को लकीर और तकदीर से बहुत अलग रखती है क्यों की जहाँ संघर्ष है वहाँ लकीर और तकदीर अपने आप ही पीछे छूट जाते है
Excellent ......keep it up
Amazing piece of writing.
Bahut badhiya bhaiya ji
Well done Keep it up bro...
I salute to you brother
Nice sir g