कटी पतंग

15-01-2021

कटी पतंग

डॉ. अंकिता गुप्ता (अंक: 173, जनवरी द्वितीय, 2021 में प्रकाशित)

माँझे से बँधी हूँ, 
चकरी से जुड़ी हूँ, 
रहते सदा ये मेरे संग,
मैं हूँ एक रंग बिरंगी पतंग।
 
मेरे अपने, मुझे प्यार से हैं सहलाते, 
कन्नी हैं देते, 
जैसे, 
आत्मा विश्वास हैं भरते, 
आसमान की ऊँचाइयाँ छूने को  उमंग हैं भरते।
हवा में उड़ती मैं मलंग, 
मैं हूँ एक रंग बिरंगी पतंग।
 
बादलों से बातें करती, 
पंछियों का चहकना सुनती, 
माँझे की ढील से आगे बढ़ती, 
नया संसार टटोलती, 
मैं हूँ मस्त मलंग पतंग। 
 
मेरी जैसी हैं गगन में अनेक, 
किसी डोर से बँधी है हर एक,
करती महसूस ख़ुद को सुरक्षित, 
आगे बढ़ती हूँ हर समय अचिंतित। 
 
पर,
संसार मैं भरे हैं कई दुष्चरित, 
कर रहे जो गगन को भी संक्रमित। 
 
काट दिया मेरा माँझा, 
टूट गया मेरा संग, 
अब,
मैं हूँ एक कटी पतंग।
 
दौड़ रहे लूटेरे, मुझे लूटने को, 
लड़खड़ाती गिर रही मैं आसमान से, 
कोई ना है मुझे सँभालने को। 
ढूँढ़ रहे मेरे अपने ,
पर हूँ मैं कहीं दूर, 
कर दिया लूटेरों ने ,
मेरा आत्मबल चूर चूर। 
 
अकेले, असहाय, असमर्थ, 
बुला ना पायी अपनों को, 
फिर समझा रही थी मैं,
संताप भरे अपने मन को,
तोड़ देती हूँ यहीं दम, 
क्यूँकि, 
बचा ना कोई अब मेरे संग,
अब तो मैं हूँ ,
बस, एक कटी पतंग।

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