ज़िंदगी
अंकुर मिश्रा
दरख़्त ए ज़िंदगी पे फिर कभी
बहार नहीं आई
मैं भीगने को था तैयार मगर
एक फुहार तक नहीं आई
सूखी बंजर ही पड़ी रहीं ये आँखें मेरी मगर
जानें क्यों किसी कि याद नहीं आई
मैं तो चाहा था कि हो जाए उल्फ़त हमें भी मगर
पर शायद अभी वो तन्हाइयों कि रुत नहीं आई
मैं भीगनें को था तैयार मगर
एक फुहार तक नहीं आई