वे स्त्रियाँ
प्रभुनाथ शुक्ल
वे सिर्फ़ स्त्रियाँ हैं
नहीं वे जीवन की चकबेनियाँ
वे जब चलती हैं तो गढ़ती हैं
एक परिवार, एक समाज और एक परिवेश
वे समर्पित और संघर्षशील हैं
घर, परिवार, बच्चे और पति के लिए
वे नींद में जागती हैं और बुनती हैं सपने
वे गतिशील हैं कुम्भार की चाक जैसी
उठ खड़ी होती हैं भोर के साथ
और चलती हैं चाँद के पार
चूल्हा, चौका और बर्तन है उनका संगीत
परिवार की चाहत है उनकी संतुष्टि
वे नहीं जाती होटल, रेस्तरां और सिनेमा
चुनती हैं चावल और दाल के दाने
सूप की परछती में उड़ा देती हैं मायके का सुख
और कभी बचती नहीं दाल तो सूखी खाती हैं रोटियाँ
जेठ की दोपहरी में तोड़ती हैं पत्थर
पीठ पर बच्चों को लाद ढोती हैं ईंटें
वे पति को मानती हैं परमेश्वर
एक जोड़ी बिछुवे, माँग भर सिंदूर और
भरे गोड़ के महावर से रहती हैं ख़ुश
वे नहीं करती स्त्री स्वतंत्रता की बात
वे नहीं होना चाहती बेड़ियों से आज़ाद
वे बस, चाहती हैं
बेटियों के पीले हाथ, बहू की गोद में किलकारियाँ
और शांत होती साँसों में पति का साथ
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