मैं साँड़ हूँ! जहाँ जाइएगा मुझे पाइएगा . . .? 

01-10-2023

मैं साँड़ हूँ! जहाँ जाइएगा मुझे पाइएगा . . .? 

प्रभुनाथ शुक्ल (अंक: 238, अक्टूबर प्रथम, 2023 में प्रकाशित)

 

हमारे गाँव-जवार में लठ्ठन गुरु का जलवा है। वह लम्बी क़द काठी के गबरू जवान हैं। हालाँकि उमर उनकी साठा है, लेकिन अपने को वह किसी गबरू जवान से कम नहीं समझते। फ़ीट भर की हाशिएदार मूँछें और छह फ़ीट की लाठी रखते हैं। सिर पर कलकत्तइया गमछा और पूरे बदन पर पाव भर कड़वे तेल की मालिश करते हैं। जहाँ चाहते हैं वहीं मुँह मारते हैं और जिसको जो चाहें बोल देते हैं। लठ्ठन गुरु को लोग छुट्टे साँड़ के उपनाम से भी बुलाते हैं। बेचारे ज़ुबान से थोड़ा पातर हैं, लेकिन ग़लत कभी बरदाश्त नहीं करते हैं। उनकी निगाह में अगर कहीं ग़लत दिख गया तो पूरे छुट्टे साँड़ बन जाते हैं। फिर उनकी निगाह में आने वाले की ऐसी-तैसी हो जाती है। इसलिए हमारे गाँव-जवार में लोग उनका बड़ा अदब करते हैं। 

वैसी भी हमारी काशी तो साँड़ों की जन्म और कर्म स्थली है। काशी में जहाँ जाइएगा वहाँ बस साँड़ ही साँड़ ही पाइएगा। बाबा दरबार से लेकर गंगा घाट तक। चौराहे से लेकर सब्ज़ी मंडी और गली तक साँड़ ही साँड़ दिख जाएँगे। कभी-कभी तो जब अपने पर उतर आते हैं तो पूरी सड़क और गली में जाम लग जाता है। ठेंगे से जाम लगे अलमस्त पागुर करते और बीच सड़क पर ऊँघते दिख जाएँगे। आप हॉर्न बजाइए या घंटा कोई फ़र्क़ नहीं। काशी वालों का जीने का अंदाज़ ही कुछ अलग है। यहाँ की बिंदास ज़िन्दगी साँड़ की मस्ती से कम नहीं है। क्योंकि यहाँ बाबा की कृपा बरसती है। वैसे भी यहाँ के साहित्यकार भी अपने नाम के आगे साँड़ लगाना नहीं भूलते हैं। राजनीति में भी यहाँ से जो चुनकर जाता है जाता है वह छुट्टा साँड़ हो जाता है। आप ग़लत मतलब मत लगाइएगा हमारे गाँव-जवार में साँड़ बल और शौर्य का प्रतीक है। वैसे भी आजकल साँड़ों की कमी नहीं हैं। हर कोई साँड़ ही बनाना चाहता है। अब शेर उतना पसंद नहीं किया जा रहा जितना छुट्टा साँड़। इसलिए हर कोई छुट्टा साँड़ ही बनाना चाहता है। 

वैसे भी हमारे यहाँ साँड़ों का आतंक है। लोकतंत्र में कुछ सियासी फ़ैसलों की वजह से हाल के दिनों में साँड़ों की आबादी बढ़ी है। जिसकी वजह से साँड़ों का चरित्र अब इंसानों में घुस गया है। किसानों की फ़सल आराम से साँड़ चट कर जाते हैं। किसान अगर साँड़ों का विरोध करता है तो उसकी हड्डी-पसली तीतर-बितर हो जाती है। हुंकाराते और अखड़ाते साँड़ उसे छोड़ते नहीं हैं। वैसे भी साँड़ हमारी राजनीति का अहम मुद्दा है। चुनावी मौसम में तो सियासी साँड़ों और असली साँड़ों से कई बार हेलीपैड और चुनावी सभाओं में मुक़ाबला हो चुका है। सत्तापक्ष के अपने साँड़ और विपक्ष के अपने साँड़ हैं। बिना दल वाले भी ख़ुद को स्वच्छंद साँड़ समझते हैं। चुनाव के बाद किसी दल का बहुत कम है तो ऐसी प्रजाति के साँड़ अवसर का लाभ उठाकर सम्बंधित दल के गले लग जाते हैं। अब आप इन्हें अवसरवादी साँड़ से परिभाषित मत कीजिएगा। 

बदलते परिवेश में हमारे समाज में स्वच्छंद साँड़ों की समस्या सबसे बलवती हो गई है। यह गली-चौराहे, स्कूल-कॉलेज हर जगह आवारगी करते दिख जाएँगे। यह अपने माँ-बाप की बिगड़ैल औलादें हैं। जिन्हें आप लुच्चे-लफंगे जैसे विशेष विशेषण से सम्बोधित कर सकते हैं। हमारे गाँव-जवार में इनके लिए एक शब्द ‘सोहदा’ है जिसका प्रयोग इनके लिए किया जाता है। आजकल ऐसे साँड़ बेलगाम हो चले हैं। क़ानून की लाख कोशिश के बाद भी नपुंसकों की औलादें सुधरने का नाम नहीं ले रहीं हैं। ऑपरेशन मजनूँ भी इनका कुछ नहीं बिगाड़ पा रहा। राह चलती बेटियों को निशाना बना रहें हैं। बेटियों का दुपट्टा खींच बेलगाम साँड़ों ने तांडव मचा रखा है। अब देखना है ऐसे बेलगाम साँड़ों पर बाबा का बुलडोज़र वाला साँड़ कब हुंकार मारता है। 

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