देखो! चुनाव आया है ग़रीब की झोंपड़ी में भगवान आया है

01-04-2024

देखो! चुनाव आया है ग़रीब की झोंपड़ी में भगवान आया है

प्रभुनाथ शुक्ल (अंक: 250, अप्रैल प्रथम, 2024 में प्रकाशित)

 

भगेलूराम के गाँव का मौसम और मिज़ाज बदला-बदला नज़र आ रहा है। चुनावी घोषणा के साथ गाँव का मौसम बासंती हो गया है। अबकी फागुन और चुनाव एक साथ है। भगेलूराम आज बहुत ख़ुश हैं जैसे उनके जीवन की सारी मुरादें पूरी हो गयीं हैं। उनकी झोंपड़ी के भाग जग गए हैं। उसकी झोंपड़ी में कलयुग के भगवान यानी नेताजी पधारे हैं। करोड़ों की चमचामाती कार और संगिनों के साए में नेताजी के पवित्र पाँव झोंपड़ी में पड़े हैं। गाड़ी से उतरते ही नेताजी दौड़ कर भगेलूराम के चरण में पड़ गए। जैसे कोई रंक राजा का पैर पकड़ता है। जबकि बेचारा भगेलूराम थरथर काँप रहा था। उसकी तो मति ही मार गयी। किसी तरह नेताजी को भगेलूराम ने काँपते हुए उठाया। 

नेताजी भगेलूराम की झोंपड़ी के सामने पड़ी टूटी खाट पर निढाल हो गए। बोले, “दादा प्यास और भूख लगी है।” 

भगेलूराम हाथ जोड़ कर खड़ा हो गया।

“सरकार हम ग़रीब के पास क्या है। बस मटके का पानी, गुड़ की भेली प्याज़ और रोटी।” 

नेताजी अड़ गए सो भगेलूराम को रूखी-सुखी खिलाना ही पड़ा। नेताजी भगेलूराम से बहुत ख़ुश हुए और जाते समय भरत मिलनकर बोले, “दादा बस! वोट देने का वचन दे दीजिए।” 

अब मरता क्या न करता। भगेलूराम ने नेताजी के सर पर हाथ रख वोट देने का वचन दे दिया। नेताजी ने भी कहा, “दादा अबकी जीत जाऊँगा तो तस्वीर और तगदीर दोनों बदल दूँगा।” 

नेताजी उस इलाक़े से पाँच बार चुनाव जीत चुके हैं, लेकिन भगेलूराम की तस्वीर और तगदीर पच्चीस साल बाद भी नहीं बदली। हाँ, यह दीगर बात है कि नेताजी की पूरी पीढ़ी बदल गयी। पूरा ख़ानदान मंत्री है। 

भगेलूराम सोच रहा था हमारी झोंपड़ी के भाग्य अभी तक नहीं बदले। हम जैसे लोग बस, झूठी क़समें, प्यार वफ़ा में हर बार ठगे जाते हैं। जीत के बाद तो नेताजी फिर गाँव में दिखाई नहीं देते। पाँच साल बाद ही उनकी वापसी होती है। पाँच साल बाद ही वह गाँव की गलियों, खेत-सिवान की ख़ाक छानते हैं। ग़रीब की झोंपड़ी में खाना भी खाएँगे। होली भी खेलेंगे और गेहूँ की कटाई के साथ अर्थियाँ भी उठाएँगे, गड़े मुर्दे भी उखाड़ेंगे। जबकि चरणवंदन और भरत मिलाप तो आमबात है। नेताजी का यह बहुरूपियापन सिर्फ़ चुनावों में ही दिखता है। चुनाव जीतने बाद वे गुलर के फूल हो जाते हैं। बाद में नेता कम कालनेमी बन जाते हैं। फिर दिल्ली ही उन्हें रास आती है। जबकि भगेलूराम जैसे लोग झूठी क़समें और चुनावी वायदे में मारे जाते हैं। 

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