फूफा जी! चंदन लगाइए, गिफ़्ट में बुलट ले जाइए
प्रभुनाथ शुक्ल
फूफा जी घर आए हैं, लेकिन वे काफ़ी नाख़ुश हैं। सूचना के बाद भी उन्हें कोई स्टेशन लेने नहीं गया। अपनी लानत-मलानत से वे ख़ासे नाराज़ हैं। बेचारे माघ-पूस की दाँत बजाने वाली ठंड में रेलवे स्टेशन से पैदल चल कर घर आए हैं। पूरे बदन से पसीना टपक रहा है जैसे जेठ की दुपहरी में भूसौल से दंड लगाकर निकले हैं। फूफा जी, लड्डू के वियाह में आए हैं। जिसकी वजह से इस तरह की तौहीन उन्हें बरदाश्त नहीं हो रही है।
फूफा जी ने इस गुस्ताख़ी को अपने सम्मान से जोड़ लिया था। फूफा जी को स्टेशन से घर लाने की ज़िम्मेदारी बाबू जी ने गोवर्धन को सौंपी थीं। लेकिन वह पूरा गोबर है। उससे का मतलब फूफा जी आ रहे हैं या जीजा जी। ससुरा पूरा का पूरा लम्पट है। उसे सुधारने की बाबू जी की लाख डाँट कोई मतलब नहीं रखती। पूरा गैंडा है मोटी चमड़ी का। बस! तम्बाकू ओठ में दबा खींस निपोर कर चलता बनता है। उधर बाबू जी हालत खिसियानी बिल्ली की तरह हो जाती है। लेकिन! उनके ग़ुस्से का डंडा किसी न किसी पर दंड बन ज़रूर बरसता है।
फूफा जी, बाबू जी की पीढ़ी में इकलौते ख़ानदानी जीजा हैं। बेचारे फूफा जी की तौहीन बाबू जी और उनके भाइयों को भी बुरी लगी थी। लेकिन बात नालायक़ गोवर्धन पर आकर फँस गयी। जहाँ सभी ने अस्त्र रख दिया। उधर फूफा जी कड़ाही में छनती गरमा-गरम पूड़ी की तरह गोलगप्पा हुए हैं। घंटे भर से रसमलाई की प्लेट रखी है। उसकी तरफ़ देखना तो दूर निगाहें तिरछी कर के भी नहीं देख रहे हैं। गरमा-गरम पकौड़ा और चाय ठंड में ओला हो गयी। लेकिन फूफा जी टस से मस नहीं हुए।
अब बाबू जी परेशान हुए जा रहे थे कि बरात विदा होते बखत लड्डूवा को चंदन लगाने की रस्म कौन निभाएगा। ख़ानदान में इकलौते जीजा जी यही ठहरे। बाबू जी ने फूफा जी को मनाने लड्डूवा को ही भेजा।
“अरे! फूफा जी आप क्यों नाराज हैं। वैसे आपको लाने तो हर बार हमी जाते रहे, लेकिन इस बार जनेऊ में फँस गए। गोवर्धन ने सब गुड़ गोबर कर दिया। माफ करिए फूफा जी, इस बार आपकी तिलक लगाने की रस्म शानदार होगी। आपकी घर वापसी रेल से नहीं बुलट से होगी। मुझे चंदन लगाने की रस्म में बाबूजी ने आपको गिफ्ट में बुलट दने का फैसला किया है।”
यह बात सुन फूफा जी का फूला मुँह गुलाब की तरह खिल उठा था। बरामदे में बैठे रिश्तेदारों ने ज़ोर का ठहाका लगाया था।
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