भीड़

प्रभुनाथ शुक्ल (अंक: 271, फरवरी द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)

 

भीड़ सिर्फ़ भीड़ है 
भीड़ का न संविधान है न विधान 
भीड़ की न कोई भाषा है न परिभाषा 
भीड़ एक हास और परिहास है 
भीड़ के पास न सोच न विवेक
भीड़ सिर्फ़ चिल्लाती और शोर मचाती है 
भीड़ सिर्फ़ रुलाती है 
भीड़ सिर्फ़ तालियाँ बजाती है 
भीड़ सिर्फ़ अपनी बात करती है 
भीड़ सिर्फ़ अपना सोचती है 
भीड़ जाति की है 
भीड़ धर्म की है 
भीड़ उन्माद की है 
भीड़ वाद और विवाद है 
भीड़ न कोई संवाद है 
भीड़ सिर्फ़ दौड़ती और रौंदती है 
भीड़ एक पीड़ा और क्रूरता है 
भीड़ का चेहरा विभत्स्य है 
भीड़ भेड़ और भेड़िया है 
भीड़ जीवन का शोक गीत है

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