जहाँ चाहिए वहाँ थूकिए क्योंकि आप माननीय हैं 

01-04-2025

जहाँ चाहिए वहाँ थूकिए क्योंकि आप माननीय हैं 

प्रभुनाथ शुक्ल (अंक: 274, अप्रैल प्रथम, 2025 में प्रकाशित)

 

हम आदमी के स्वभाव को बदल नहीं सकते हैं। वह अपने स्वभाव यानी आदत से मजबूर होता है। हमारे पूर्वांचल में एक कहावत है कि ‘जवन बानी पड़ी लरिकाई छूटे न बुढ़ाई दईयां’। कहने का भाव यह है कि बचपन में आदमी की जो आदत बन गई वह अंतिम साँस तक उसके साथ रहती है। जिस तरह हम प्रकृति को नहीं बदल सकते हैं, ठीक उसी तरह हम आदमी की आदत को नहीं बदल सकते हैं। आदत एक कला है। मसलन कुछ आदमी दूसरे की सुनते नहीं सिर्फ़ अपनी सुनाते हैं क्योंकि उनके अंदर बड़बोलापन अधिक होता है। कुछ लोग सफ़ेद झूठ बोलते हैं, लेकिन लगता है कि वे बिल्कुल सच बोल रहे हैं। 

हमारे आसपास ऐसे आदमी भी हैं जिन्हें नींद में टहलने की आदत है। कुछ लोग रात भर सोने के बाद भी कुर्सी पर बैठेते ही खर्राटे भरने लगते हैं। इसके साथ कुछ ऐसे भी लोग हैं जो पान और गुटका खाने के बाद उसका महाप्रसाद कहीं भी उड़ेल देते हैं। इस तरह के पुनीत कार्य आम से लेकर ख़ास लोग करते हैं। हमारे माननीय भी विधानभवन को भी नहीं छोड़ते। वहाँ भी अपने थूकने की कला का प्रदर्शन करते हैं। थूकने वालों के इस पुनीत कार्य से लोग बहुत परेशान हैं। अच्छे-अच्छे ऑफ़िस, बहुमंज़िला इमारतें, रेलवे स्टेशन, बस अड्डे, सीढ़ियों पर थूकने वालों के लिए विशेष चेतावनी का बोर्ड भी लगा दिया गया है। लेकिन लोग हैं कि मानते नहीं। 

हमारे देश में थूकना एक कला है। राजा-महाराजाओं ने तो थूकने के लिए बकायदा पीकदान रखते थे। अब इस तरह के पीकदान नहीं दिखते लेकिन सरकारी ऑफ़िस के बड़े बाबू की टेबल के नीच प्लास्टिक की बाल्टी पीकदान के रूप में उपयोग होती है। क्योंकि उन्हें मुफ़्त में चाय और पान लेने की आदत होती है। घूस के रूप में भी वे पान की भेंट बत्तीसी निकालते हुए लेते हैं। थूकना हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है। हमारे यहाँ थूकने की पूरी आज़ादी है। हम सड़क, विधानसभा और सरकारी ऑफ़िस में रोज़ थूकते हैं। अभी एक माननीय विधानसभा में ही थूककर अपनी महानता का अद्भुत परिचय दिया। विधानसभा अध्यक्ष ने उनकी काफ़ी लानत-मलानत की, लेकिन उन्होंने उनके चेहरे को बेनक़ाब नहीं किया, क्योंकि वे माननीय ठहरे। अगर आम आदमी होते तो पता नहीं क्या होता। थूकते हुए उसकी तस्वीर वायरल हो जाती, लेकिन अब सवाल माननीयों की जमात का ठहरा। 

हमारे यहाँ थूकना जैसे संविधानिक अधिकार है। आप रेल सफ़र के दौरान शौचालय में पान और गुटका खाकर थूकने वाले यात्रियों की तरफ़ से किया गया पुनीत कार्य आप आए दिन देखते हैं। खिड़की से भी थूक का महादान करते हैं। क्योंकि पान और गुटका हमें थूकने का पूरा अधिकार देता है। आप बाईक या वाहन पर सफ़र के दौरान भी हम अपने थूकने की कला का प्रदर्शन करते हैं। अच्छे कार्य के लिए जहाँ लोग एक दूसरे की प्रशंसा करते हैं वहीं बुरे कार्य पर थूकते भी हैं यहाँ थूकने का अभिप्राय शाब्दिक निंदा से है। आप जहाँ जाइएगा थूकने वाले आपको आराम से मिल जाएँगे। हमारे समाज में थूक कर चाटने की भी प्रथा रही है। हालाँकि अब इसका वर्जिनल वर्जन के बजाय शाब्दिक माफ़ीनामा आ गया है। लेकिन वह बात अब मुहावरा बन गया है जिसे आम बोलचाल की भाषा में हम थूक कर चाटना कहते हैं। वैसे आजकल लोग इतने महान कार्य कर दे रहे हैं, जिसकी वजह से हर जगह उनकी थू-थू हो रही है। लेकिन अब लोगों की आदत है वे थूकने से बाज़ नहीं आते और लोग बुरा करते रहते हैं। फ़िलहाल थूकने की यह बीमारी लाइलाज है फ़िलहाल इसका कोई समाधान नहीं है। 

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