सर्जिकल स्ट्राइक: समय से सार्थक संवाद

01-01-2023

सर्जिकल स्ट्राइक: समय से सार्थक संवाद

तेजपाल सिंह ’तेज’  (अंक: 220, जनवरी प्रथम, 2023 में प्रकाशित)

समीक्षित पुस्तक: सर्जीकल स्ट्राइक (उपन्यास) 
लेखक: ईश कुमार गंगानिया
प्रकाशन: नोशन प्रकाशन, चैनई (मद्रास); प्रभात प्रकाशन, दिल्ली
मूल्य: ₹ 300/-

कुमार गंगानिया जी ने मुझे अपने एक मात्र और प्रथम उपन्यास “सर्जीकल स्ट्राइक” की चार प्रतियाँ भेंट स्वरूप प्रदान कीं। दो अँग्रेज़ी वर्जन में और दो हिंदी में। यह जानकर ख़ुशी हुई कि उनके इस उपन्यास की दो साल के अल्प काल में अलग-अलग पब्लीकेशन हाउसिस से हिंदी और अँग्रेज़ी की दो-दो किताबों का प्रकाशन किया गया। यह इस उपन्यास की सहज-सरल भाषा, वस्तुकथा, कथोपकथन और उपन्यास के पात्रों की संलिप्तता का ही परिणाम है। मेरा मन था कि इस पर कुछ लिखा जाय किन्तु मैं रुग्णावस्था के चलते उस समय कुछ नहीं लिख पाया। अब जबकि मैंने कुछ हल्का महसूस किया तो ईश कुमार जी उपन्यास पर कुछ अधोलिखित विचार व्यक्त किए। 

पुस्तक परिचय अर्थात्‌ कथा-वस्तु की बात करें तो लेखक के शब्दों में उपन्यास का संक्षेप में सार यह है कि यदि पुलवामा का आतंकी हमला आतंकवादियों के नापाक इरादों और भारतीय सीआरपीएफ़ के शहीदों की शहादत तक सीमित रहता तो इस उपन्यास ‘सर्जिकल स्‍ट्राइक’ के अस्तित्‍व में आने की ज़रूरत ही नहीं थी। लेकिन आतंक की लपटें जब राजनीति से आक्‍सीजन लेकर देश और इसके सामाजिक ताने-बाने को निगल जाने पर आमादा हो जाएँ तो उपन्यास के नायक आजीवक बाबू का मैदान-ए-जंग में उतरना और इसके पर्दाफ़ाश के लिए सर्जिकल स्‍ट्राइक समय की माँग बन जाती है। इतना ही नहीं, देश के नागरिकों का भेड़ यानी भीड़ बन जाने, दोहन की सामग्री बन जाने और ‘प्रोडक्‍ट फ़ॉर सेल’ की संस्‍कृति में सिमट जाने के विरुद्ध जंग, नायक की बाध्‍यता हो जाती है। एक बड़े समूह का रोबोट में तब्‍दील हो जाना, रिमोट कट्टरपंथियों की मिल्कियत और सामम्‍प्रदायिकता का बेलगाम हो जाना, संवैधानिक संस्‍थाओं का वेंटिलेटर का मोहताज और मीडिया का ‘इंडियन मीडिया परिमियर लीग’ हो जाना, मात्र अपने आक़ा के सपनों को रंगीन बनाने की बैटिंग-बालिंग करना, ऐसी इन्‍द्रधनुषी सियासी छत्रछाया में एक आम आदमी की रोज़मर्रा की ज़िन्दगी के रंग कैसे-कैसे हो सकते हैं? उसका ‘वेलेंटाइन डे’ कैसा हो सकता है? यह उपन्यास ‘सर्जिकल स्‍ट्राइक’ इन रिक्‍त स्‍थानों की पूर्ति का एक साधारण-सा प्रयास है . . . उपन्यास की लाइफ़-लाइन है। 

माना जाता है कि कथा साहित्य का उदय सम्भवतः कहानी-लेखन से सम्भव हो सका है। यह भी माना जाता है कि उपन्यास का उदय लम्बी कहानियों के लेखन के प्रादुर्भाव के साथ-साथ हुआ है। किन्तु कहानी और उपन्यास के बीच जो ख़ास अंतर है, उसे समझने के लिए ज़्यादा उलझन का सामना नहीं करना पड़ता। दरअसल, कहानी जीवन तथा समाज के किसी विशेष भाग को विश्‍लेषित करती है जबकि अर्नेस्ट ए. बेकर ने उपन्यास की परिभाषा देते हुए उसे गद्यबद्ध कथानक के माध्यम द्वारा जीवन तथा समाज की व्याख्या का सर्वोत्तम साधन बताया है। अर्थात्‌ विश्व-साहित्य का प्रारंभ ही सम्भवतः कहानियों से ही हुआ, इस मानने में कोई संदेह शायद नहीं रहता। 

यह भी कि साहित्य में गद्य का प्रयोग जीवन के यथार्थ चित्रण का द्योतक रहा है। उपन्यास के ज़रिए साधारण बोलचाल की भाषा द्वारा लेखक के लिए अपने पात्रों, उनकी समस्याओं, विचारों तथा उनके जीवन की व्यापक पृष्ठभूमि से प्रत्यक्ष सम्बन्ध स्थापित करना आसान होता है। इस सम्बन्ध में एक सत्य उजागर कर दूँ कि ईश कुमार गंगानिया के प्रस्तुत उपन्यास ‘सर्जिकल स्‍ट्राइक’ से पूर्व उनका ‘इंट्यूशन’ शीर्षांकित एक कहानी संग्रह, तीन काव्‍य संग्रह तथा आलोचना की दर्जन भर पुस्‍तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। अतः उपन्यास लिखने की उनकी कोशिश अनायास नहीं है। गंगानिया जी ने अपने इस उपन्यास में जीवन की विसंगतियों के व्‍यापक चित्रण प्रस्तुत करने में ही उपन्यास-लेखन की कला को प्राथमिकता प्रदान करते हुए समय के साथ एक सार्थक संवाद करने का साहस किया है। 

यथार्थ के प्रति उनका आग्रह बिल्कुल नया है, ऐसा नहीं है . . . यह उनकी कविताओं और निबंधों में बेबाक तेवर के साथ बराबर अभिव्‍यक्‍त होता रहा है। उपन्यास का प्लॉट ऊपरी तौर पर राजनीतिक नज़र आता है लेकिन इसमें आम आदमी के जीवन से जुड़ा ऐसा कोई पहलू नहीं है जो इसकी विषयवस्‍तु से अछूता रह गया हो। कहने की आवश्‍यकता नहीं कि उन्होंने अपने आस-पास के परिदृष्य को ही अपने उपन्यास का विषय बनाया है। कल्पना की दुनिया से परे, उनका यह उपन्यास हवाबाज़ी की दुनिया से परे जीवन जीने वाले पाठकों को ज़रूर आकर्षित करेगा, ऐसा मेरा विश्‍वास है। इस उपन्यास में पात्रों की संख्‍या सीमित है लेकिन वैचारिक धरातल का कैनवस काफ़ी व्‍यापक है। 

ये पात्र आपस में समाज के प्रत्येक पहलू पर, फिर चाहे वह राजनीतिक मसले हों, सामाजिक विसंगतियों की कुरूपता हो, धर्म के सम्बन्ध में किसी प्रकार भी प्रकार की उठा-पटक की बात हो, सामाजिक अनेकता की बात हो, मूलधारा के साहित्य अथवा दलित लेखक संघों व साहित्‍यकारों की कारगुज़ारियाँ हों, बाबा साहेब अम्बेडकर की विचारधारा और उनकी विचारधारा की मान्यता को लेकर उठने वाले सवालों की बात हो, उपन्यास में सभी मुद्दों पर गर्मजोशीपूर्ण से चर्चा है . . . संवाद है। उपन्यास में पात्रों के स्‍वाभाविक विकास के लिए स्‍पेस की कोई कमी नज़र नहीं आती। उपन्यासकार पात्रों के स्वाभाविक विकास और उनके चित्रण में कहीं भी हस्‍तक्षेप करता नज़र नहीं आता। इसके चलते औपन्यासिक परिस्थितियों के साथ भी न्याय होता नज़र आता है और पात्रों के साथ भी। कहा जा सकता है कि कई परिस्थितियों में उपन्यासकार का अलग तरह से सोचने का आग्रह ज़रूर नज़र आता है लेकिन इसके पीछे पूर्वाग्रह न होना, लेखकीय ईमानदारी को रेखांकित करता है। 

कुल मिलाकर कथाकार कोरी कल्पना की दुनिया से दूर . . . यथार्थ की दुनिया का उल्लेख करता है इसलिए प्रस्तुत उपन्यास की ग्राह्यता और बढ़ जाती है। यथार्थ की परिधि के बाहर जाकर अनावश्‍यक मनचाही उड़ान न कथानक की माँग नज़र आती है और न ही कथाकार इसके लिए कोई फ़ालतू प्रयास की करता नज़र आता है। उपन्यास की विषयवस्‍तु की विश्‍वसनीयता पाठकों को उपन्यास से जोड़े रखने में सहायक प्रतीत होती है। उनके इस उपन्यास का आविर्भाव और विकास उनके कहानी-लेखन के बाद का उपक्रम है जो व्यक्ति तथा समाज को व्‍यापक धरातल प्रदान करता है। यह जीवन की समस्याओं के प्रति एक नए दृष्टिकोण का तर्कयुक्त व व्‍यवहारिक दस्‍तावेज़ है। अंत में यह कहना अतिश्योक्ति न होगा कि कथाकार का दृष्टिकोण केवल बौद्धिक ही नहीं है। उपन्यासकार की कला-साधना समाज की समस्याओं को बारीक़ी से उकेरती है और व्यापक सामाजिक जागरूकता का मार्ग प्रशस्‍त करने की प्रबल क्षमता रखती है। प्रस्तुत उपन्यास में सामाजिक व राजनीतिक चेतना के क्रमिक विकास की कलात्मक प्रस्तुति है . . . अभिव्यक्ति है। 

अधिकतर साहित्यकारों की मान्यता है कि जीवन का जितना व्यापक एवं सर्वांगीण चित्र उपन्यास में मिलता है उतना साहित्य के अन्य किसी भी रूप में उपलब्ध नहीं . . . प्रस्तुत उपन्यास इस उक्ति पर खरा उतरता है, यह कहने में मुझे कोई संकोच नहीं। दरअसल, उपन्यासकार के लिए कहानी साधन मात्र है, साध्य नहीं। उसका ध्येय पाठकों का मनोरंजन मात्र भी नहीं . . . यह पाठक को समाज की समस्याओं की अनेक परतों से रूबरू कराते हुए उनके समाधान हेतु ठहर कर विचार करने को बाध्‍य करता है . . . व्‍यक्ति को मौजूदा परिस्थितियों के प्रति अपनी जिम्‍मेदारियों के निर्वहन के लिए उकसाता है . . . झकझोरता है। कथाकार की यही कला लेखन के प्रति ईमानदारी की ओर संकेत करती है। शुभेच्छु . . . 

समीक्षक: तेजपाल सिंह ‘तेज’ 

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

स्मृति लेख
कविता
सामाजिक आलेख
ग़ज़ल
साहित्यिक आलेख
कहानी
चिन्तन
गीतिका
कार्यक्रम रिपोर्ट
गीत-नवगीत
पुस्तक समीक्षा
विडियो
ऑडियो

विशेषांक में