मौन सन्नाटों के बीच
तेजपाल सिंह ’तेज’
मैं जानता हूँ कि तुम
अब कभी भी नहीं आओगी
फिर भी जब कभी
मैं
चाँदनी रात के आँगन में
तारों की छाँव में
अकेला होता हूँ
तो तेरे गीतों की धनक
मेरे कानों को खुजलाती है—
तब मुझे लगता है
कि तुम आओगी/अवश्य आओगी
जब कभी
मैं
सावनी हरी घास के बिस्तर पर
पेड़ो की घनी छाँव में
आँखें मूंदकर स्तब्ध सा लेटा होता हूँ
तो मेरे सूखे बालों से
होकर गुज़रती हुई भीनी-भीनी हवा
का स्पर्श
तेरी अंगुलियों की छुअन का
मज़ा देता है—
तब मुझे लगता है
कि तुम अवश्य आओगी/अवश्य आओगी
जब कभी
मैं
बन्द कोठरी में
मौन सन्नाटों के बीच
घिरा होता हूँ तो
तेरी सुधियों के तूफ़ान
रह-रह कर
मेरे मन के बन्द जर्जर दरवाज़े की
साँकल को
खटखटाते हैं—
तब मुझे लगता है
कि तुम आओगी/अवश्य आओगी
इसलिए मैं घर के सब
खिड़की—दरवाज़े खोलकर सोता हूँ।
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