कूड़ी के गुलाब (काव्य संग्रह): बँधुआ मज़दूरी से कविता तक
तेजपाल सिंह ’तेज’काव्य संग्रह: कूड़ी के गुलाब
कवि: अमित धर्मसिंह
प्रकाशक: रचनाकार प्रकाशन, मुजफ्फरनगर
प्रथम संकरण: 2023 (पेपरबैक)
पृष्ठ संख्या: 212
मूल्य: 300/₹
आज जब हम गद्य अथवा कविता लेखन की बात करते हैं तो वह वार्ता निरंतर बदलती समकालीन परिस्थितिओं को ध्यान में रखे बिना सार्थक नहीं हो सकती। आज तो यह भी सोचना होगा कि सोशल मीडिया ने साहित्य को कैसे और किस हद तक प्रभावित किया है। कहना न होगा कि सोशल मीडिया के दुरुपयोग का साहित्य और रचनात्मकता पर इस हद असर हुआ है कि सोशल मीडिया टूल ने पढ़ने-लिखने में आम जन के साथ-साथ साहित्यकारों को भी लाभ पहुँचाया है। ज्ञान वर्द्धन तो हुआ ही, साथ-साथ लेखन की कार्यशाला का भी लाभ नव लेखकों को मिला। वरिष्ठ लेखकों को भी ई-गोष्ठी, ई-समारोह तथा विश्व स्तर पर पढ़नेवाले सुधीजनों का साहचर्य मिला। सोशल मिडिया ने बहुत से उभरते और वरिष्ठ लेखकों को भी एक ‘प्लेटफ़ॉर्म’ दिया है।
किन्तु यह भी सत्य है कि सामाजिक मीडिया के दबाव और लेखकों की कंप्यूटर के माध्यम से अपनी पुस्तकों को बढ़ावा देने में सफल होने की इच्छा ने उनकी कहानियों की सामग्री को संकीर्ण कर दिया है क्योंकि वे व्यापक दर्शकों की प्रतिक्रियाएँ प्राप्त करने और अपने लेखन को बेहतर स्वागत दिलाने के लिए अपने लेखन में लोकप्रिय विचारों, विषयों और कथानक बिंदुओं पर ध्यान ज़्यादा रखते हैं, देश, काल और परिस्थिति की नहीं। सोशल मीडिया पर लेखन और अन्य साहित्यिक गतिविधियों से जहाँ रचनात्मक सक्रियता बढ़ी है, वहीं इसकी अधिकता ने चिंतन-मनन पर आघात किया है। अच्छे लेखक हर जगह अच्छा लिखेंगे क्योंकि उन्हें मेहनत और मनन की आदत है। अच्छे लेखक अपनी लिखी कृति को परिष्कृत करते हैं, चिंतन–मनन, लिखने और छपने में समय लेते हैं। मगर जो मन की बात नहीं कही जा सकती . . . बोगस हैं, वे हर जगह कचरा बिखेरते हैं यह एक कटु सत्य है। सोशल मीडिया की सक्रियता और छपने-दिखने की हड़बड़ी में कई लेखक जाने-अनजाने बहुत सी ग़लतियाँ करते हैं। किन्तु इधर कुछ साहित्यिक संस्थाएँ भी हैं जो न केवल ओनलाइन गोष्ठियों का संचालन करती है अपितु भौतिक गोष्ठियों के ज़रिए साहित्य को बल प्रदान करने में आज भी सक्रिय हैं। इनमें से एक ‘नव दलित लेखक संघ, दिल्ली’ का नाम लिया जा सकता है।
हाल ही में 29.12.2024 को ‘नव दलित लेखक संघ, दिल्ली’ के तत्वावधान में शाहदरा स्थित संघाराम बुद्ध विहार (शाहदरा) में एक ऑफ़लाइन काव्यपाठ गोष्ठी का आयोजन किया गया। गोष्ठी के प्रथम चरण में डॉ. अमित धर्मसिंह के स्वप्रकाशित काव्य संग्रह ‘कूड़ी के गुलाब’ का लोकार्पण हुआ। दूसरे चरण में सभा में उपस्थित कवियों का काव्यपाठ हुआ। पहले चरण का संचालन सलीमा ने तो दूसरे चरण का सफल संचालन मामचंद सागर ने किया। गोष्ठी में माननीय एदलसिंह, फूलसिंह कुस्तवार, राधेश्याम कांसोटिया, डॉ. ऊषा सिंह, पुष्पा विवेक, बृजपाल सहज, जोगेंद्र सिंह, डॉ. कुसुम वियोगी उर्फ़ कबीर कात्यायन, अरुण कुमार पासवान, शीलबोधि, दिनेश आनंद, डॉ. घनश्याम दास, मदनलाल राज़, राजपाल सिंह राजा, इंद्रजीत सुकुमार, भिक्षु अश्वगोष एवं तेजपाल सिंह ‘तेज’ ने भी टेलीफोनिक काल के ज़रिए अपनी उपस्थित दर्ज कराई।
पुस्तक लोकार्पण के बाद सर्वप्रथम डॉ. गीता कृष्णांगी ने बताया, “यह संग्रह 2023 प्रकाशित हुआ। मुझे इसकी एक-एक कविता बहुत-बहुत पसंद है।” उन्होंने, हवा से भरे लोग, प्रेमालाप, ज़मीन का आदमी आदि कविताओं का प्रभावी पाठ किया।
अरुण कुमार पासवान ने बताया, “मैंने अमित धर्मसिंह की कविताएँ इससे पूर्व प्रकाशित पद्यात्मक आत्मकथा “हमारे गाँव में हमारा क्या है” में पढ़ीं और जाना कि ज़मीन से जुड़ी कविताएँ कैसी होती हैं। प्रस्तुत संग्रह “कूड़ी के गुलाब” भी उसी तरह की ज़मीनी कविताओं का संग्रह है। अमित जी के काव्य-संग्रह का जो ये शीर्षक “कूड़ी के गुलाब” मेरे प्रथम काव्य-संग्रह “अल्मोड़ा के गुलाब” की गहराइयों तक ले जाता है। जब मेरा काव्य संग्रह लोकार्पित हुआ तो अल्मोड़ा के कुछ मित्रों ने मुझसे पूछा कि क्या अल्मोड़ा में गुलाब भी होते हैं? मैंने कहा कि हाँ! . . . ये सच्चाई है। मैंने देखा है, लेकिन “अल्मोड़ा का गुलाब” लिखने का मेरा आशय भी ठीक वैसा ही है जैसा कि अमित धर्मसिंह के काव्य संग्रह का . . . दोनों ही काव्य संग्रहों में “गुलाब” को एक प्रतीक के रूप में लिया गया है . . . शाब्दिक अर्थों के रूप में नहीं। बस! हमें “कुड़ी” और “कूड़ी” के भेद को समझना होगा। निमंत्रण मिलने पर मुझे लगता कि मैं एक बहुत ही अच्छी संस्था से जुड़ा हूँ। जहाँ विचार सिर्फ़ पनपते ही नहीं, अपितु उनका पल्लवन, पुष्पपण भी बहुत बढ़िया से होता है। मुझे इस बात का अफ़सोस रहेगा कि समयाभाव मैं अमित जी की एक कविता जो कि इसी संग्रह के पृष्ठ बयालीस पर छपीं है उसे सुनाकर ही विदा ली। कविता शीर्षक है—‘कविता’ . . . “कविता नहर के उस पानी के समान नहीं/जिसे खुदाई करके निकाला जाता है/वांछित मार्ग से/कविता/झरने के उस पानी के समान है/जो बिना किसी पूर्व सूचना के/फूट पड़ता है/पहाड़ के सीने से/और बह निकलता है/अनिर्धारित मार्ग से।”
शीलबोधि ने कहा, “मैंने अमित धर्मसिंह जी की कुछ कविताएँ पहले भी पढ़ीं थीं और अभी भी पढ़ीं हैं। मुझे उनकी कविताएँ मेरी अपनी ही कविताएँ लगती हैं। मुझे लगता है कि जो कुछ मुझे लिखना था, वह अमित धर्मसिंह पहले ही लिख चुके हैं। खुले शब्दों में कहूँ तो मुझे ऐसा लगता है, जैसे मेरी ही कविताएँ उन्होंने अपने नाम से छपवा ली हों। भला इससे ज़्यादा, मैं इन कविताओं के विषय में और क्या कह सकता हूँ। वास्तव में अमित जी की कविताओं में जिन प्रतीकों के माध्यम से बातें कही जा रही हैं अगर उन्हें, आदमी कविताओं को पढ़ते हुए देख रहा है तो उसे बड़ा ही आनंद आएगा। और जहाँ ये कविताएँ ख़त्म होंगी, वहाँ आदमी उनकी कविताओं के गाम्भीर्य को जानकर आश्चर्य और विस्मृत से खड़ा रह जायेगा। कविताओं में जिस तरह से बिम्ब बनाया जाता है और जिस तरह शब्दों का विधान खड़ा किया जाता है, वो मुझे एकदम आश्चर्य में डालता है। मुझे लगता है कि कल जब हम न रहेंगे, तब भी ये कविताएँ रहेंगी। तब ये इतिहास का एक बड़ा दस्तावेज़ बनेंगी। और जैसा कि सुनने में आया कि हर एक कविता का एक वास्तविक बिंदु है, जहाँ से उसकी यात्रा शुरू हुई है तो इन्हीं कविताओं के माध्यम से कल इतिहास लिखा जायेगा कि आज के समय में क्या-क्या घटनाएँ हुई थीं। लोग चीज़ों को कैसे देख रहे थे, कैसे समझ रहे थे। इस दौर की समस्याएँ क्या थीं। अमित धर्मसिंह जी ने अपनी कविताओं में जिन बिम्बों और प्रतीकों के विधान की रचना की है, मैं उसके लिए उनको बहुत-बहुत बधाई देता हूँ।” उन्होंने ‘विमर्शों की लड़ाई’ शीर्षांकित एक कविता का पाठ भी किया।
डॉ. कुसुम वियोगी ने किताब पर बोलते हुए कहा कि “अमित धर्मसिंह जी का ये जो नया कविता संग्रह आया है, निःसंदेह एक बेहतरीन काव्य संग्रह है। दरअसल, हम लोग उन्मुक्त कविता को बहुत सहज कविता समझ लेते हैं, जबकि उन्मुक्त कविता या मुक्तछंद कविता इतनी सहज नहीं है, जितना कि हम समझकर चलते हैं। इनके भी कुछ सिद्धांत हैं। आजकल हम बतकही ज़्यादा कह रहे हैं, उन्मुक्त कविता के नाम पर। बतकही कविता में बातें ही बातें हैं। लेकिन, जब हम अमित धर्मसिंह की कविताएँ देखते हैं या अभी-अभी जो हमने कुछ रचनाएँ सुनीं, उनसे ज्ञात होता है कि उनकी कविताएँ वैसी बतकही नहीं हैं। भगवान बुद्ध ने कहा है कि दो तरह के विचार होते हैं, सांथेटिक (कृत्रिम रूप से उत्पादित) और प्रमाणिक। जो सांथेटिक हैं, वो परंपरा से चले आ रहें है, उन्हीं को लिख देना कि जैसे लाल क़िला, ऐसा है, लाल है, पीला है, काला है, उसके गुम्बद नहीं है, कह दिया और लिख दिया कि ये कविता है . . .। कविता ये नहीं है। कविता के पीछे जो लेखक का मंतव्य होता है वो, कविमन की भावना और यथार्थ के साथ-साथ सार्थक अभिव्यक्ति करना होता है। कविता ऐसे है, जैसे कि एक झरना। वो नहीं कि नदी की तरह काटा, पीटा और निर्धारित मार्ग से बहा दिया। कविता वह है जो झरने की तरह स्वयं फूटती है। वही वास्तव में कविता होती है जो दिल से फूटकर आती है। अमित जी की कविताएँ ऐसी ही हैं। अमित जी ने ग्राम्य परिवेश को बहुत नज़दीक से देखा, परखा और भोगा हुआ है। अन्यथा बहुत सारे लोग गाँव में रहकर आते हैं, हम भी गाँव में रहकर आएँ, लेकिन उस दृष्टि को नहीं पकड़ पाए जिसको अमित जी ने पकड़ा है। यही कारण है कि उनकी कविताओं में भाव, अनुभव, दृष्टि, और अधिक सूक्ष्म रूप में उभरकर सामने आती है। भाषा का, शब्दों का और कविता के शिल्प का जितना सफल प्रयोग अमित धर्मसिंह कर लेते हैं, वैसा हर किसी के वश की बात नहीं। निश्चित ही, कूड़ी के गुलाब की एक-एक कविता, भाव सिंधु से मथकर निकाले गए मोती के समान है जो संग्रहणीय, पठनीय और विचारणीय हैं। यथा—‘कूड़ी के गुलाब’ की कुछ पंक्तियाँ: “हम/गमले के गुलाब की तरह नहीं/कुकुरमुत्ते की तरह उगे हैं/माली के फव्वारे ने/नहीं सींचीं हमारी जड़ें/हमारी जड़ों ने/पत्थर का सीना चीर/खोजा पानी/कुटज की तरह . . .”
तेजपाल सिंह तेज ने एक टेलीफोनिक संदेश मेंअपनी टिप्पणी देते हुए कहा कि “ये जो ‘कूड़ी के गुलाब’ एक समूची कविता है जिसमें निहित तमाम कविताएँ ज़रूर ही वास्तविक ग्रामीण परिवेश को उकेरती ही नहीं अपितु उसकी दुर्दशा पर ज़ोरों से प्रहार करती हैं, ऐसा मेरा विश्वास है। किताब का शीर्षक ‘कूड़ी के गुलाब’ निसंदेश भावोत्पादक और प्रभावी है। व्यापक दृष्टि से समूचे ग्रामीण परिवेश की परतें निकोलने की दिशा में संकेत करता है। संग्रह की कविताएँ पूरे ग्रामीण जन-जीवन को पाठकों के सामने जस का तस रखने का दम रखती हैं। अमित जी की एक ‘देखो!’ शीर्षक से एक कविता: “देखो! कि तुम क्या देखते हो/कैसे देखते हो/तुम्हें क्या देखना चाहिए/अँधेरों में देखो/क्या दिखाई देता है/उजालों में क्या छुपा होता है /सब देखो/. . .। अतीत में देखो/तुम कहाँ थे। वर्तमान में कहाँ हो/भविष्य में कहाँ देखना है/अपनेआप को/ठीक से देखो . . .।”
आज सबकी एक कमज़ोरी मोबाइल बन गया है। मैं समझता हूँ कि ‘मोबाइल उपवास’ ऐसा कारगर तरीक़ा है जिससे मन-चिंतन तथा लेखन करने के लिए आवश्यक समय मिल सकता है। मस्तिष्क फिर से रचनात्मक सक्रियता के ‘मोड’ में आ सकता है। कचरे की जगह परिपक्व लेखन या विमर्श सामने आ सकता है। यदि सोशल मीडिया का संतुलित और संयमित रूप में प्रयोग किया जाय तो अच्छा साहित्यिक सृजन भी कुछ अंगुलियों की दूरी पर ही है। सभी वरिष्ठ तथा नव लेखकों को सोशल मीडिया के संयत और संतुलित मात्रा में प्रयोग से इसका प्रचुर लाभ मिले, ऐसी मेरी अभिलाषा है।”
मुझे तो लगता है कि जैसे सारी कविताओं का मर्म अकेले शीर्षक में पूरी तरह किताब में समाया हुआ है। यह भी कि यदि किसी कविता की एक पंक्ति भी हृदयग्राही हो जाती है तो कविता मुकम्मल हो जाती है। अमित जी की कविताओं में जो ख़ास विशेषता है, वह है परिवेश के साथ ईमानदारी का दर्शन। अच्छा लगता है जब अमित जी जैसे कवि नए-नए बिंबों का ख़ुलासा करते हैं। अमित जी ने यह कार्य बहुत ही सुंदर ढंग से किया है। वे निश्चित ही बधाई के पात्र हैं।”
वक्ताओं के बाद डॉ. अमित धर्मसिंह ने अपने लेखकीय व्यक्त्व में बताया, “कूड़ी के गुलाब में 2003 और 2017 के बीच जन्मी चुनिंदा कविताओं को संगृहीत किया गया है। सभी कविताओं को दो चरणों में विभक्त करते हुए बढ़ते कालक्रम में प्रस्तुत किया गया है ताकि कविता, कवित्व और विचार के विकासक्रम को आसानी से समझा जा सके। मेरी इन कविताओं के अंतर्गत बँधुआ मज़दूरी से कविता तक पहँचने तक के सफ़र का समुचित उल्लेख है। मेरे लेखन के प्रति वक्ताओं की जो भी खट्टी-मीठी टिप्पणियाँ हैं, मेरा निश्चित ही मार्ग प्रशस्त करेंगी, ऐसा मेरा विश्वास है।” उन्होंने ‘कूड़ी के गुलाब’ काव्य संग्रह में से ‘एक घर का जलना’, ‘देखो’, ‘उन्माद’ और ‘हाथ एक’ शीर्षांकित कविताओं का पाठ भी किया। ‘जीवंत दस्तावेज़’ शीर्षांकित कविता का एक अंश, “मैंने तुम्हें/बक्से में ढूँढ़ा/शायद तुम्हारा कोई फोटो हो उसमें/किन्तु नहीं मिला/घर में कभी नहीं रही कोई एलबम/. . .अख़बारों में कहाँ छपे थे तुम/जो ढूँढ़ता तुम्हें अख़बार की कतरनों में/अख़बार भी तो घर आया तक नहीं/आता भी क्यों/तुम कभी अख़बारों में छपे ही नहीं/. . .”
(कथ्य: बृजपाल सहज पीएचडी शोधार्थी-प्रचार सचिव, नदलेस)
अध्यक्षता कर रहे बंशीधर नाहरवाल ने कहा कि इसमें कोई संदेह नहीं कि अमित धर्मसिंह एक मंजे हुए कवि हैं। उनकी पहली कृतियों से भी दलित साहित्य बहुत समृद्ध हुआ है, और आज ‘कूड़ी के गुलाब’ नाम का भी काव्य संग्रह एक बेशक़ीमती नग की तरह दलित साहित्य में आ जड़ा है। कहा जाता है कि एक चावल चेक करके पता कर लिया जाता है कि चावल पके हैं, कि नहीं। इसी तरह, कविताओं और वक्तव्यों से जो सैंपल यहाँ प्रस्तुत किए गए हैं, उनसे सहज ही अंदाज़ा हो जाता है कि संग्रह बहुत ही उत्कृष्ट बन पड़ा है। जैसा कि कविता के विषय में अरुण पासवान जी ने अमित जी की एक कविता, कविता शीर्षक से ही पढ़कर बताया है कि कविता झरने के उस पानी के समान है जो पूर्व सूचना के फूट पड़ता है, पहाड़ के सीने से। ऐसा मानिए कि अमित जी की ये कविताएँ भी ऐसी ही हैं। आज दलित साहित्य अपने आप में एक महासागर की तरह है, इसमें बहुत कुछ लिखा-पढ़ा जा रहा है। उसमें कितना पठनीय है, यह सोचने की बात है। लोग इससे सीखकर दलित साहित्य की रेंज को समझेंगे। सीखेंगे और समाज हित में कुछ करने को प्रेरित होंगे।” इनके अलावा सलीमा ने हाथ-दो शीर्षक से एक कविता का पाठ करते हुए कहा कि कविताओं की एक-एक पंक्ति, इतनी गहरी और लाजवाब है कि उनकी कितनी ही व्याख्या करते चले जाओ। डॉ. ऊषा सिंह ने ‘लानत है’ शीर्षक से और डॉ. घनश्याम दास ने ‘खाना’ शीर्षक से भी अमित धर्मसिंह की कविताओं का प्रभावी पाठ किया। तत्पश्चात्, पुष्पा विवेक, दिनेश आनंद, इंद्रजीत सुकुमार, एदलसिंह, फूलसिंह कुस्तवार, बृजपाल सिंह, मामचंद सागर, मदनलाल राज़, जोगेंद्र सिंह, आदि ने संग्रह के प्रकाशन की अमित धर्मसिंह जी को बधाई देते हुए, अपनी-अपनी कविताओं का उम्दा पाठ किया। सभी उपस्थित साहित्यकारों का धन्यवाद ज्ञापन गोष्ठी संयोजक डॉ. गीता कृष्णांगी ने किया। चलते-चलते अमित जी की कविता ‘चलता है वह’ की कुछ पंक्तियाँ, यथा: “चलता है वह/सड़क की बायीं तरफ/सबको रास्ता देते हुए/जंगल में चलता है हवा की तरह/पानी की तरह बहना आता है उसे/ओस की घास पर चलता है सवेरे-सवेरे/यह जानने के लिए कि काली अँधेरी रात/क्या सौंपकर जाती सुबह को . . .”
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