मेरे भीतर के लोग

15-09-2024

मेरे भीतर के लोग

तेजपाल सिंह ’तेज’  (अंक: 261, सितम्बर द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)

 

बात बहुत पुरानी है। शायद 1962/63 की होगी। सम्भवतः मैं सातवीं या आठवीं का छात्र रहा हूँगा। मेरे भाई ग्राम प्रधान थे। ग़रीबों को रिहायशी भूखंड आवंटित किए जा रहे थे। पटवारी पट्टे लिखने के कुछ पैसे वसूलता था। हुआ यूँ कि एक दिन अचानक मैंने मुफ़्त में पट्टे लिखने शुरू कर दिए। करना क्या था, पुराने पट्टे की नक़ल ही तो करनी थी। बस! आवंटन के प्रार्थी का नाम व पता ही तो बदलना था। गाँव वाले लोग बड़े ख़ुश हुए। बस! यहीं से सेवाभाव का कीड़ा मेरे दिमाग़ में घुस गया। 

पुराने समय में गाँवों में बारात दो रात रुका करती थी। मैंने नवीं कक्षा में अपने ही घर से अपनी भतीजी की शादी में दो रात बारात को रोकने की परंपरा को तोड़ दिया। भाई से इस काम के लिए पिटाई भी खाई। गाँव वालों ने भी भाँति-भाँति से बुराई की किन्तु 2-3 वर्ष बाद ही मेरे इस काम की ख़ूब प्रशंसा हुई। उस समय मैं बारहवीं पास करके नौकरी की तलाश में दिल्ली आ चुका था। इस ख़ुशी का आभास तब हुआ जब मैं दिल्ली से गाँव लौट कर वापस गया था। अब परम्पराओं को तोड़ने की ओर मेरा साहस और बढ़ गया। अभी मेरी नौकरी लगी नहीं थी। 

हाँ! याद आया कि मैं अपने रिश्तेदारों को भी कम से कम 5-6 पृष्ठ के पत्र लिखा करता था। सो पत्र लिखने का मेरा एक पुराना शौक़ है। जब मैं गाँव में रहता था, तब कभी-कभी गाँव के लोग भी अपने ख़त लिखवाने आ जाया करते थे। इस प्रकार समाज की समस्याओं से मेरा नाता जुड़ता चला गया। 

उल्लेखनीय है कि कॉलेज में मुझे ही नहीं, किसी को भी कोई जातीय दुराव देखने को नहीं मिला जबकि मेरे कॉलेज में तीन-चार अध्यापकों को छोड़कर शेष सभी अध्यापक ब्राह्मण थे। लेकिन उनमें जाति भेद से इतर ग़रीब परिवारों के बच्चों की पढ़ाई के प्रति एक अजीब सी सद्भावना थी कि वे उनकी हर सम्भव मदद किया करते थे। सभी छात्र भी जाति भेद की भावना से परे एक साथ मिलकर रहते थे। 

किन्तु दिल्ली आने के बाद मनुवादी दुराचरण गहरे से देखने को मिला। यह बात अलग है कि मैं इसकी गिरफ़्त से परे ही रहा। किन्तु शासन-प्रशासन की घनी आबादी वाली बस्तियों के प्रति अनेक प्रकार की हो रही अनदेखी दिल को सालती रहती थी। सरकारी शिक्षा संस्थानों की दुर्दशा, बिजली की आँख-मिचौनी, बस्तियों की ऊबड़-खाबड़ गलियाँ होना जैसे आम बात थी और आज भी है। वैसे इस सब अव्यवस्था का कारण, जनता का चुप रहकर मुश्किलों को झेलते रहना ही है। 

ऐसे में देश की न्यायपालिका और विधायिका जैसी संवैधानिक संस्थाएँ आजकल जनता की अभिभावक होने की भूमिका का निर्वाह करने में कमज़ोर ही नहीं हो गई हैं बल्कि संज्ञा-शून्य हो गई हैं। ग़रीब और निरीह जनता के सामने दो ही विकल्प बचे थे। पहला विकल्‍प तो यही बनता है कि वे सरकारी/राजनीतिक झूठे और खोखले वायदों की बैसाखियाँ फेंक दें और मानवीय अधिकारों की प्राप्ति के लिए संघर्ष करने के लिए सामूहिक रूप से सड़कों पर निकल पड़े। 

इसका दूसरा सरल सहज विकल्‍प यही बचता है कि वे ईश्वर/अल्लाह की दुआ पर ही ज़िन्दा रहे। किन्तु यहाँ सवाल पैदा होता है—‘क्या ये रास्ते राष्ट्रीय मूल्यों और राष्ट्र की विश्वव्यापी धर्मनिरपेक्ष छवि की रक्षा कर पाएँगे? मेरे विचार से यह कदापि व्‍यवहारिक नहीं है। अतः आवश्यक ही है कि सरकार खुलेपन से देश के अल्पसंख्यकों, दलित-पिछड़ों को समय रहते संवैधानिक सुरक्षा और हक़ प्रदान करे। समाज का प्रत्येक व्यक्ति, वर्ग व समुदाय एक दूसरे के हितों और धार्मिक भावना को समझे। इसके संरक्षण के लिए अपने दायित्व का निष्ठापूर्वक निर्वाह करे। इससे न केवल मानवीय मूल्यों की रक्षा होगी, अपितु परस्पर सद्भाव के सहारे राष्ट्रीय एकता की मूल भावना को बल मिलेगा। 

भ्रष्टाचार के मामले में एक प्रवृत्ति चारों तरफ़ देखने को मिलती है। आमतौर पर भ्रष्टाचार में रसूख़दार और मालदार विशेष रूप लिप्त पाए जाते हैं। लेकिन भ्रष्टाचार का दोष भूखे-नंगे मज़दूरों और कमज़ोर वर्ग पर लगाया जाता है। भ्रष्टाचार का आरोप लगाने वाले ये क्यों भूल जाते हैं कि भूखे को क्या चाहिए? केवल दो वक़्त रोटी, तन ढाँपने को कपड़ा और सिर छिपाने के लिए झोंपड़ा जिसे मकान कह सकते हैं। अगर वह भ्रष्टाचार करेगा भी तो क्‍या—ज़्यादा से ज़्यादा रोटी की। इससे ज़्यादा कुछ नहीं। वो समझता है कि उसकी चाहत ही उतनी है। जिसने पैसा कभी देखा ही नहीं, उसके लिए पैसे भूख बहुत ही छोटी होती है। 

पैसे का मूल्य तो वो जानता है, जिसके पास पैसा होता है। जिसके पास पैसा कल भी था और आज भी है। वह इसका संचय ज़रूरतें पूरी करने के लिए नहीं करता बल्कि अपनी अय्याशी की भूख मिटाने के लिए करता हो कभी मिटने वाली नहीं है। इस श्रेणी में तथाकथित समाज का आभिजात्य वर्ग यथा—सवर्ण, धर्म के ठेकेदार बाबा, राजनेता और उद्योगपति आते हैं। 

उनके पास धन कल भी था और आज भी उनके ही पास है। वह इसलिए कि उन्‍हें पैसे का स्वाद अच्छे से पता है। सो वो तबक़ा पैसा एकत्र करने के तमाम उपक्रम करता है। फिर चाहे वो नैतिक हो या अनैतिक। अनैतिक तरीक़े से पैसा एकत्र करना ही तो भ्रष्टाचार की श्रेणी में आता है। कहना अतिशयोक्ति न होगी कि पैसा कभी भी नैतिक तरीक़े से एकत्र नहीं किया जा सकता।     

कोई माने या न माने, जानते सब हैं कि भारतीय समाज एक ऐसा समाज है जिसके बीच हमेशा जातिगत विद्वेष रहा है। सच तो ये है कि भारतीय जन-समूह में अलग-अलग प्रकार की अनेक जातियाँ है। वे दलित-दमित लोगों के साथ पशुओं जैसा व्‍यवहार करते हैं। यही हिन्दू-धर्म में निरंतर विघटन का कारण रहा है और आज भी है। स्पृश्य और अस्पृश्य के बीच की सामाजिक असमानता ने ही धर्म परिवर्तन में चार-चाँद लगाए हैं। किन्तु हिन्दू कट्टरपंथी इस ओर से आँखें मूँदे हुए हैं। 

कितना अफ़सोस-नाक सत्य है कि एक हिन्दू, एक दूसरे हिन्दू के प्रति मुख्यतः हिन्दुत्व की भावना से व्यवहार करता है। किन्तु अपने ही धर्म के अस्पृश्य हिन्दुओं के साथ जाति-भावना से व्यवहार करता है। फिर हिन्दू धर्म में कैसा भी विघटन क्यूँ न होता रहे? खेद की बात तो ये है कि हिन्दूवादी संगठन तमाम इलेक्‍ट्रॉनिक मीडिया के ज़रिए छोटे से छोटे सीरियल में हिन्दू-धर्म के तमाम देवी-देवताओं के करिश्मे दिखाकर समाज के ग़रीब और निरीह तबक़े के हृदयों में डर बिठाकर हिन्दू-धर्म में जारी विघटन की प्रक्रिया को रोकने का निरंतर और भरसक प्रयत्न कर रहे हैं, किन्तु जो करना चाहिए उसकी ओर उनका कोई ध्यान नहीं है। 

इतिहास गवाह है कि आज़ाद भारत में जब-जब भी कोई बड़ा आन्‍दोलन हुआ, ज़ाहिर तौर पर उसका केन्द्र बिन्दु सामाजिक अथवा व्यवस्था परिवर्तन ही रहा किन्तु सब के सब आन्‍दोलन हुए केवल सत्ता परिवर्तन के लिए। यहाँ यह विषय से बाहर की बात नहीं है। इस विषय पर फिर कभी चर्चा करना बेहतर होगा। कहने का आशय है कि भारतीय लोकतंत्र में सरकार चाहे किसी भी राजनीतिक दल की रही, सामाजिक अथवा व्यवस्था परिवर्तन के नाम पर ठगी तो आम जनता ही गई। 

यह सब देख-देखकर, मैं और मेरे जैसे अनेक लोग ऐसी व्यवस्था से लड़ने में असहाय महसूस करके अक्‍सर हाथ मलते रह जाते हैं। आम आदमी की पीड़ा के विषय अक्सर शिक्षा, मीडिया और राजनीति का कलुषित आचरण ही रहा है। मैं जानता हूँ कि नौकरी करते हुए ज़्यादा कुछ नहीं किया जा सकता था। विभागीय स्तर पर जो कुछ किया जा सकता है, बेख़ौफ़ किया। स्टेट बैंक में ऑफ़िसर होते हुए मैं एस.सी./एस.टी. के प्रतिनिधि के रूप में लगभग 12 बार इंटरव्यू बोर्ड का सदस्य रहा किन्तु मेरा पक्ष सदा सकारात्मक रहा। कारण कि बोर्ड के अन्य सदस्य न केवल अपने ही कार्यालय के थे अपितु मेरे व्यवहार और कार्य क्षमता से ख़ासे प्रभावित थे। इसका लाभ ये मिला कि अंतिम निर्णय मेरे पर ही छोड़ देते थे। फिर भी सभी की धारणा यही रहती थी कि रोज़ी केवल सक्षम प्रत्याशी को मिले जिसे वास्तव रोटी की आवश्यकता है। 

ख़ैर! ये तो रही विभागीय बात, अब कुछ अलग। समाज में व्याप्त कुरीतियों और अन्य प्रकार की तमाम विसंगतियों को देखते हुए मेरा कुछ न कुछ करने का मन बना रहता था। आख़िर बिना कोई संस्था बनाए नाना प्रकार समाज की समस्याओं को उठाता रहा। एक मित्र ने परामर्श दिया कि किसी भी प्रकार के लेखन के लिए विभागीय परमिशन लेने की ज़रूरत है। दूसरे उसने बताया कि सामाजिक मुद्दों पर पत्राचार करने के लिए एक संस्था का होना ज़रूरी है। यह 1993 की बात है। मुझे उनकी बात संगत लगी और कुछ मित्रों की मदद से मैंने ‘दृष्टिकोण’ नामक संस्था का न केवल गठन ही किया अपितु उसे पंजीकृत भी करा लिया। ‘दृष्टिकोण’ द्वारा किए कार्यों का उल्लेख यहाँ दिया जा रहा है . . .। बहुत कुछ किसी मजबूरीवश यहाँ नहीं दिया जा सका है। 

चलते-चलते एक बात और कि 1968 में बीमारी के कारण मैं बारहवीं कक्षा के परीक्षा में नहीं बैठ पाया था। ज़ाहिर है बारहवीं की पढ़ाई जारी रखने के लिए पुनः दाख़िले की आवश्यकता थी। कॉलेज खुलने पर मैं प्रधानाचार्य महोदय से मिला। आदेश हुआ कि तुम्हें परेशानी क्या है? कल आ जाना तुम्‍हारा दाख़िला हो जाएगा। मैं फिर अगले दिन स्‍कूल गया मगर दाख़िला नहीं हुआ। फिर अगले दिन कॉलेज आया तो प्रधानाचार्य महोदय ने बड़े ही सहज भाव से कहा, “बेटे! कॉलेज के हेड-क्लर्क है ना बचेश्वर जी, उनका कहना है पिछ्ले वर्ष तुमने कॉलेज को कुछ आर्थिक हानि पहुँचाई थी। छात्रवृति पाने वाले बच्चों में से किसी ने भी छात्रवृति में से भवन-निर्माण हेतु वसूली जाने वाली राशि नहीं कटवाई। उन बच्चों का कहना है कि उन्होंने ऐसा तुम्हारे इशारे पर किया था।” मैं गुमसुम यह सुनता गया। 

इसके अलावा कोई चारा ही नहीं था। मुझे शांत देखकर प्रधानाचार्य महोदय बोले, “लेकिन तुम चिंता मत करो। तुम्हारा दाख़िला तो होना ही है। ठीक है, देखते हैं। तुम कल आ जाना।” उनकी बात सुनकर मैंने उनसे कहा, “मगर गुरु जी! मैंने तो वजीफ़ा लेते समय दो रुपये महीने के हिसाब से बड़े बाबू को चंदा देने की पेशकश की थी। यद्यपि मैं बीमारी की हालत में ही बैलगाड़ी में डालकर वजीफ़ा लेने के लिए लाया गया था, उन्होंने ही वह राशि मुझसे नहीं ली थी। उन्‍होंने मुँह बनाकर कहा था—‘जब किसी ने भी चंदा नहीं दिया तो तुम ही क्यों देते हो’?” 

उन्होंने मेरी बात सुनी और कहा, “कोई बात नहीं। अब घर जाओ, कल आ जाना।” इसके बाद मैं अपने कला-अध्यापक माननीय लोकमान्य शर्मा जी के पास कला कक्ष में चला गया। उनके चरण स्पर्श किए। मेरा लटका हुआ चेहरा देखकर बोले, “क्यों क्या हुआ? मुँह क्यों लटका हुआ है? (ग़ौरतलब है कि लोकमान्य शर्मा जी कुछ नाक में बोला करते थे) बोले, दाख़िला हुआ कि नहीं?” मैंने सारी कहानी उनके हवाले कर दी। वो उन दिनों चीफ़ प्रॉक्टर हुआ करते थे। सारी कहानी सुनकर बोले, “अच्छा ऐसा है तू अब घर जा, कल आना।” मैं घर लौट गया। 

अगले दिन सुबह ही कॉलेज का सफ़ाई कर्मचारी ‘स्वामी’ हमारे घर आया और बोला, “बड़े गुरुजी ने बुलाया है। कॉलेज चलो।” मैं उसका मुँह देखता रह गया। मुझे उसकी बात पर यक़ीन ही नहीं हो रहा था। ख़ैर! मैं उसके साथ ही कॉलेज को चल पड़ा। उसने रास्ते में बताया, “तुझे पता है कल कॉलेज में क्या हुआ? हुआ यूँ कि कल लोकमान्य जी ने सभी दाख़िलों पर रोक लगा दी और प्रिंसिपल साहब के कहने पर टीचर्स की एक बैठक बुलाई गई। मैं भी उस बैठक में चाय-पानी पिलाने के लिए हाज़िर था। तेरे दाख़िले की बात उठी तो लोकमान्य सर ने बचेश्वर सर से कहा कि वो तुझ पर लगाए गए इल्ज़ाम को लिखकर दें। बस! फिर क्या था बचेश्वर सर से कुछ कहते नहीं बना, ना ही कुछ लिखकर देने को तैयार हुए। उलटे प्रिंसिपल सर से माफ़ी और माँगनी पड़ी। समझे आज तुम्हारा दाख़िला हो जाएगा, ठीक है।” इस तरह मेरा बारहवीं कक्षा में पुनः दाख़िला हो गया। शायद यथोक्त दो घटनाओं के कारण मेरे स्वभाव में संघर्ष की भावना ने घर कर लिया जो आज तक मेरे ज़ेहन में बरक़रार है। भवतु सब्‍ब मंगलम। 

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