कंगला माला-माल बरस
तेजपाल सिंह ’तेज’
कंगला माला-माल बरस,
शांति-दूत महाकाल बरस।
आता-जाता है सालाना,
मानवता को साल बरस।
राजनीति के गलिहारों में,
करता ख़ूब धमाल बरस।
जीने दे ना मरने दे है,
करता अजब कमाल बरस।
उत्तर की परवाह किए बिन,
गढ़ता नए सवाल बरस।
कि अपनी कथनी-करनी पर,
करता नहीं मलाल बरस।
'तेज' मानवीय संबंधों का,
करता नहीं ख़्याल बरस।
0 टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
- कार्यक्रम रिपोर्ट
- सजल
- साहित्यिक आलेख
-
- आज का कवि लिखने के प्रति इतना गंभीर नहीं, जितना प्रकाशित होने व प्रतिक्रियाओं के प्रति गंभीर है
- चौपाल पर कबीर
- दलित साहित्य के बढ़ते क़दम
- वह साहित्य अभी लिखा जाना बाक़ी है जो पूँजीवादी गढ़ में दहशत पैदा करे
- विज्ञापन : व्यापार और राजनीति का हथियार है, साहित्य का नहीं
- साहित्य और मानवाधिकार के प्रश्न
- साहित्य और मानवाधिकार के प्रश्न
- स्मृति लेख
- कविता
- सामाजिक आलेख
- ग़ज़ल
- कहानी
- चिन्तन
- गीतिका
- गीत-नवगीत
- पुस्तक समीक्षा
- विडियो
-
- ऑडियो
-