साथ-साथ सब क़दम उठें
तेजपाल सिंह ’तेज’
हरिक वर्ष कुछ ऐसे आए, साथ-साथ सब क़दम उठें,
मानव-मानव को पहचाने, प्रेम के प्याले छलक उठें।
हवा मुकम्मिल दुनिया की, गर बदले तो यूँ बदले,
बस्ती बस्ती ख़ुशहाली हो, बाग़-बग़ीचे महक उठें।
सूरज यूँ धरती पर उतरे, आँगन-आँगन धूप खिले,
सुबह सवेरे बैठ मुँडेरी, चीं-चीं चिड़िया चहक उठें।
हरिया को रोटी मिल जाए और धनिया को पैंजनिया,
छालों भरे हाथ को चूड़ी, घायल पायल छनक उठें।
हिंदू हो या मुस्लिम कोई, कोई इसाई, सिख या बौद्ध,
आपस में यूँ 'तेज' मिलें सब, सबके चेहरे चमक उठें।
0 टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
- कार्यक्रम रिपोर्ट
- सजल
- साहित्यिक आलेख
-
- आज का कवि लिखने के प्रति इतना गंभीर नहीं, जितना प्रकाशित होने व प्रतिक्रियाओं के प्रति गंभीर है
- चौपाल पर कबीर
- दलित साहित्य के बढ़ते क़दम
- वह साहित्य अभी लिखा जाना बाक़ी है जो पूँजीवादी गढ़ में दहशत पैदा करे
- विज्ञापन : व्यापार और राजनीति का हथियार है, साहित्य का नहीं
- साहित्य और मानवाधिकार के प्रश्न
- साहित्य और मानवाधिकार के प्रश्न
- स्मृति लेख
- कविता
- सामाजिक आलेख
- ग़ज़ल
- कहानी
- चिन्तन
- गीतिका
- गीत-नवगीत
- पुस्तक समीक्षा
- विडियो
-
- ऑडियो
-