औरत जब पत्नी होती है
तेजपाल सिंह ’तेज’
शब्द चित्र:
सोमवार का दिन था। जून का महीना बड़ा उमस भरा। गर्मी से हर कोई परेशान। ऊपर से दिल्ली जैसे महानगर की अस्त-व्यस्त यातायात व्यवस्था। बसें आती हैं तो आती ही चली आती हैं। वर्ना घंटों लग जाते हैं बस के इंतज़ार में। ये दिल्ली शहर बेशक कमाल का शहर है, चल पड़ा तो चल पड़ा, ठहर गया तो ठहर ही गया। पर मैंने इसे अक़्सर ठहरे हुए ज़्यादा देखा है। हर चौक पर यातायात जाम रहना आम बात है। बहाने बड़े आसान हैं। कभी प्रधानमंत्री ‘गांधी समाधि’ जा रहे हैं तो कभी राष्ट्रपति। कभी अमेरिका तो कभी ब्रिटेन के राष्ट्राध्यक्ष दौरे पर हैं। वैसे भी डी.टी.सी. की हालत ख़स्ता है। टैम्पो और आर.टी.वी. का आतंक बाप-रे-बाप। यातायात पुलिस व्यवस्था बनाने के बजाए पैसा वसूली में ज़्यादा मस्त रहती है। ऐसे माहौल में किसी का ऑफ़िस देरी से पहुँचना बेशक मजबूरी है। आज मैं भी देर से ऑफ़िस पहुँचा था। फँस गया था लक्ष्मीनगर में। यातायात बुरी तरह जाम था। पैदल निकलना भी मुश्किल था। पर बॉस है कि पद का भूत उसके सिर पर हमेशा चढ़ा रहता है। ज़रा-सी देरी क्या हुई कि बड़बड़ाने लग गया। पड़ गया मेरे पीछे। सी.आर. ख़राब करने की धमकी तक दे डाली। आख़िर मैं कब तक चुप रहता। बोलना ही पड़ा। पूरा दिन तनाव में गुज़रा।
शाम को जैसे-तैसे घर लौटा। कपड़े बदले और घर के प्रथम तल पर चला गया। देखा कि मेरी पत्नी व बच्चे एक ही खाट पर बैठे जैसे परिवार को परिभाषित कर रहे थे। पत्नी के हाथ में झूलता पंखा गर्मी के से संघर्ष का नाकाम प्रयास कर रहा था। बिजली के होने पर भी पत्नी के हाथ में बीजना देखकर मेरा ध्यान सीधा छत के पंखे की ओर चला गया जो पिछले कुछ दिनों से ख़राब था। बड़े बेटे से बार-बार कहने के बावजूद पंखा ठीक नहीं कराया गया। बस! मैं खीझ गया। तनाव तो सिर पर था ही। मैं बेटे से कह उठा, “शायद तुम्हें तो गरमी लगती ही नहीं।” बस! मेरा इतना कहना था कि मेरी पत्नी मुझ पर आग बबूला हो उठी। बोली, “गर्मी या ई कू लग रई है। हम सब ना बैठे हैं यां, या कू ही अक्ल ना आई। हर दम उपदेस देवै है।” अब मैं अवाक् था।
इतना सुनकर, मैं नीचे उतर आया। सोचा इससे नाहक़ ही सिर मारना है। कुछ भी कहो, इसे तो बुरा ही लगता है। सोचना-समझना तो इसे है ही नहीं। भला इससे मैंने ऐसा क्या कहा था? पर इसे तो बोलने का बहाना चाहिए, सो मिल गया। दफ़्तर में बॉस, घर में पत्नी, दोनों के दोनों खाने को आते हैं।
नीचे आकर कमरे में पड़े पलंग पर चुपचाप लेट गया। टी.वी. चल रहा था। टी.वी. पर भी मियाँ-बीवी का झगड़ा देखकर मेरा दिमाग़ और ख़राब हो गया। वही नारी मुक्ति आंदोलन की बातें, वही नारी की आदमी से समानता के नारे, वही हर क्षेत्र में भागीदारी का रोना, सुन-सुनकर मैं जैसे खीझ-सा गया था। भला! उन सारे के सारे नारों का गाँवों की महिलाओं से क्या सरोकार? चंद पढ़ी-लिखी ही क्यों, शहर में आ बसे ग्रामीणों की अनपढ़ बीवियाँ पढ़ी-लिखी महिलाओं से और चार क़दम आगे हैं। कोई भी तो पति को पति नहीं समझती। बात-बात पर ताना, जैसे घर-घर की रिवायत बन गई है। घर के बाहर का हास-परिहास घर में आते ही काफ़ूर हो जाता है। भला! ये कैसे भविष्य का भविष्य है। इतना ही नहीं, जाने कितने और विचार मेरे दिमाग़ में उठ खड़े हुए। मेरा सिर भारी हो गया। मैं उठा और सीधा बैठक में गया, फ़्रिज खोला, ठंडा पानी लिया और सटासट रम के दो तीन पैग खींच गया। दिमाग़ फिर भी ठंडा नहीं हुआ। एक बड़ा-सा पैग और चढ़ा गया। पता नहीं खाना भी खाया कि नहीं। नींद आई तो ऐसी कि सपनों में खो गया।
सपने में भी वही सब कुछ सामने आया जो आमतौर पर झेलने को मिलता था। मेरी पत्नी और उसके ताने ही जारी रहे। मेरी चुप्पी फिर भी नहीं टूटी। मैं एक कमरे से दूसरे कमरे में चला जाता। वो मेरे पीछे-पीछे आ जाती। में भारी तनाव में था। हारकर बच्चों का सहारा लिया। उनकों ही पत्नी को चुप कराने का भार सौंपा। यह देख वो और भी बिगड़ गई, बोली, “भडुवे! मेरे बालकों को ई मेरे खिलाफ भड़कावे है। तू क्यों ना बोले है? बोलेगा कैसे? जिन्दगी में कुछ करा हो तो बोलै भी। पढ़ा-लिखा बना फिरै है। दुनिया पागल बना राखी है या आदमी ने। मैं उनमें से नाडूं, जो तेरे आगे पीछे लग फिरे हैं। मैं तेरी कमाई के पीछे नाऊँ, अपनी मेहनत का खाउं हूँ।” न जाने क्या-क्या बकती चली गई। कभी गाली देती। कभी मारने को दौड़ती। मैं मूक बना झगड़े को टालने के प्रयास में लगा रहा। पर सब बेकार। मेरी बेसहारा आँखें फिर बच्चों की आँखों से जा टकराईं। बच्चे शायद मजबूरी को समझ गए थे। बचपनी स्वर में, उन्होंने माँ को समझाने का प्रयास किया। पर कुछ हल नहीं निकला। आख़िर, बच्चों ने उसे दूसरे कमरे में ले जाने का प्रयास किया। थोड़ी-सी खींचतान हुई, पर ये क्या? वह जैसे बेहोश हो ज़मीन पर गिर पड़ी। लंबी-लंबी साँसें लेने लगी जैसे कोई दौरा पड़ा हो। वह ज़ोरों से छटपटाने लगी। बच्चों ने उसे सँभालने का उपक्रम तो किया, पर वे डर से गए। मैं भी कुछ करने का साहस न कर सका। मन में ग़ुस्सा और डर दोनों जो भरे थे। इससे पहले मैं कुछ और सोच पाता, उसने मेरी क़मीज़ के कॉलर पकड़े और इतने ज़ोर का झटका दिया कि मेरी क़मीज़़ के लगभग सारे बटन टूट गए। उसने झट से क़लम जैसी कोई चीज़ उठाई और क़मीज़ के बटनों वाली किनारी पर कुछ लिखने का नाटक जैसा किया। पर बेकार। पढ़ी-लिखी थोड़े ही थी। इससे पहले कि मैं कुछ कहता वह चिल्ला उठी, “पढ़ ले इसे। तुझे मैंने भी नीचा ना दिखाया तो मैं भी लुगाई ना ठहरी।” वह फिर बड़बड़ा उठी, “मैं कल से मीर कासिम के साथ रहूँगी, हिम्मत हो तो आ देखयो।” मैं इतना सुनकर सहम तो ज़रूर गया पर इस पर विश्वास नहीं हो रहा था कि वह ऐसा कुछ कर पाएगी। ये तो उसकी रोज़-रोज़ की कहानी थी। वह पुनः बड़बड़ा उठी, “अब तू अर तेरी औलाद ई रईयों संग-संग। मैं भी देखूँगी, कब तक रहेगा तू यों। तू सोचरा होगा, मैं अपना घर मकान तोकू ई छोड़ दऊँगी। सब कुछ मेरे नाम है, तू देखता जा तुजे ई घर से बाहर ना करा तो जानयो।” इतना कह वो दूसरे कमरे में चली गई।
उसके जाने के बाद, मैं कुछ भी नहीं सोच पाया। हक्का-बक्का-सा छत को ताकता रहा। मैं नहीं जान पाया कि आख़िर उसका रवैया मेरे प्रति ऐसा क्यों है? क्या कमी है घर में? अच्छी-ख़ासी तनख़्वाह आती है। समाज में भी मेरी अपनी पहचान है। कार्यालय से घर का कुछ लेना-देना नहीं। लोग भी पूछते हैं मुझे। मैं नहीं सोच पाया कि आख़िर ऐसी क्या बात है जिन्हें बाहर वाले सीख मानकर सफल हो जाते हैं, उन्हीं बातों पर घरवाली मुझे खरी-खोटी सुनाती है। इसे बच्चों की पढ़ाई-लिखाई से भी कुछ लेना-देना नहीं है। अपनी मनमर्ज़ी करती है। इसकी मर्ज़ी के चलते बच्चे कभी घर का नाश्ता तक नहीं कर पाते। खाने की उत्तमता का तो कहना ही क्या? पटरी वाले भी इससे अच्छा ही खाते होंगे। दिल्ली जैसे शहर में अच्छा ख़ासा मकान है। पर मकान तो मकान है, घर नहीं।
जाने क्या-क्या सोचकर मैं समस्या का हल खोजने में लगा रहा। अचानक बच्चे चिल्ला उठे, “पापा . . . पापा . . .। पापा! मम्मी अपने कमरे में नहीं है। जाने कहाँ चली गई?” बच्चे एक दम से उदास और हताश थे। मुझे ही समझाने की मुद्रा में दिखे। बोले, “पापा! मम्मी तो अनपढ़ है, तुम तो नहीं? कुछ बोलते क्यों नहीं तुम? तुम्हारी चुप्पी ही मम्मी की चीख पुकार की जड़ है। हम जानते हैं, तुम यही कहोगे कि यदि मैं भी कुछ इसके जैसा ही बर्ताव करने लगा तो लोग मुझे ही कहेंगे कि यह तो अनपढ़ है, तुम तो अनपढ़ नहीं। तुमसे ऐसा करने की आशा नहीं थी। पर पापा, ये कब तक चलेगा। अब कितनी उम्र बाक़ी रही है तुम्हारी। समर्पण भी तो किसी समस्या का कोई हल नहीं है, पापा।” मैं बच्चों की बात चुपचाप ही सुनता रहा। कुछ भी नहीं कह पाया। वह फिर कह उठे, “क्या तुमने आईना देखा है? देखी है अपनी सूरत? झुर्रियाँ पड़ गई हैं। ऐसा ही चलता रहा तो जल्दी ही मर जाओगे। तब हमारा क्या होगा? मम्मी को तो वैसे ही कुछ लेना-देना नहीं है हमसे। वो हमारी बात भी नहीं समझती। न ही समझा पाती। बस! चीखना-चिल्लाना, डाँटना-डपटना ही आता है उसे। उसने कभी भी हमें प्यार से नहीं समझाया” इतना कहकर बच्चों की आँखें डबडबा आईं। आँखों से आँसू छलकने लगे। वे अपने कमरे में चले गए और मैं मन मार के पत्नी को खोजने निकल पड़ा।
रात के लगभग दस बज रहे होंगे। मैं उसे नहीं खोज पाया। हारकर घर लौटने का निर्णय लिया और बाज़ार वाली सड़क से घर की ओर चल पड़ा। थोड़ी ही दूर चला था कि देखता हूँ कि मेरी पत्नी बड़ी उन्मुक्त अवस्था में एक पनवाड़ी की दुकान पर खड़ी है। पनवाड़ी के अलावा दो-तीन अन्य नवयुवक भी खड़े हैं। उनके मुँह में पान, हाथ में सिगरेट लगी है। पनवाड़ी पान लगाने में व्यस्त है। अचानक एक हिजड़ा आया और पनवाड़ी से बोला, “साला क्या कर रिया है? रोज नई-नई लाता है। साला कभी हमें भी पूछ लिया कर। अल्ला क़सम! खुश कर दूँगी। पर तू तो साला झल्ला है। तू क्या करेगा?” इतना कहकर, उसने मेरी पत्नी की और खारिस भरी निगाहों से देखा और झल्ला कर बोला, “ओए साली! तू क्यों खड़ी है इन लफंगों के साथ? चल भाग जा यां से। साली! तेरे घरवाला नहीं है क्या? साली! घरवाला नहीं तो बच्चे तो होंगे ई! चल भाग यां से। घर जा।” इतना कह हिजड़ा तो चला गया। पर मेरी पत्नी की निगाह मुझ पर जमी रही। मुझे लगा कि यदि वह मुझे खा सकती तो खा ही जाती अब तक। पर मैं मन ही मन परेशान था। अपना लोहा ही ख़राब है तो लुहार का क्या खोट? फिर भी मैं पास खड़े एक युवक से पूछ ही बैठा, “आपका परिचय?” उसने अपना नाम तो नहीं बताया, पर अपनी पैंट की बेल्ट उतार ली। सिगरेट में ज़ोर का कस लगाया और बेल्ट में से एक धारदार चाकू निकाला और बोला, “ओए! तू घरवाला है न इसका। काजी मीरकासिम का नाम सुना है? वो बाप है मेरा। साला! आगे से इससे तूने बात भी की तो ये चाकू तेरे हलक़ से डालूँगा और . . . निकाल लूँगा। मादर . . . चला जा यहाँ से और सुन मेरे बाप से मिलने की ज़ुर्रत ना करियो।” इतना सुन, मेरी पत्नी के मुख पर व्यंग्यात्मक हँसी की लहर दौड़ गई। उसने मुझ पर ही चोट कर डाली और नीचा दिखाने की मंशा से हँसकर मुझसे बोली, “समझा कि नई? चल अब अपना रास्ता नाप। चलता बन। आज से आगे मेरा पीछा ना करियों। नई तो तेरी लाश ही उठेगी। और उठाने वाला भी कोई ना होगा।”
मैं हक्का-बक्का सब कुछ सुनता गया। इसके अलावा मेरे पास कोई और चारा भी नहीं था। मैं उससे कुछ भी कहने का साहस नहीं जुटा पाया। शिक्षा के बोझ तले दबा, घर की ओर चल पड़ा। मुड़कर देखा तो मेरी पत्नी मुझ पर खुलकर हँस रही थी। मैं और खीज गया। तेज़ी से घर की ओर चलने लगा। पता नहीं कैसे-कैसे घर पहुँचा। परेशान तो था ही घर जाकर रम के दो-तीन पैग और लगा बैठा। बच्चे मेरे मुँह को ताकते रहे। ना मैं सोया ना बच्चे। जैसे-तैसे रात कटी, दिन निकल आया पर मेरे दिलो-दिमाग़ का अँधेरा इसलिए और बढ़ गया कि मेरी पत्नी लौटकर नहीं आई। सूरज का प्रकाश ज़मीन पर फैलने लगा। बच्चों का एक ही प्रश्न मुझे घेरे हुए था, “पापा मम्मी नहीं आई? कुछ करो ना!”
दिन के उजाले में, मैं फिर घर से निकल पड़ा। पर चलना कैसा? पाँव आगे रखता, तो पीछे को जाता। इसी कश-म-कश में मेरी साँसें फूल गईं। पसीने से तरबतर हो गया। जीभ सूख गई। मेरी स्थिति लगभग पागलों जैसी ही थी। मुझे कुछ भी पता नहीं था। कहाँ जाऊँ? कहाँ खोजूँ उसे? . . . बस चले जा रहा था। चलते-चलते फिर पनवाड़ी की दुकान पर ही जा पहुँचा। पर अब दुकान पर पत्नी नहीं मिली। हाँ! दो-चार लोग सिगरेट पीते आपस में ये बात ज़रूर कर रहे थे कि अब हमारे देश के नेताओं को स्वयं घूमने की आवश्यकता नहीं है। उनके पास शब्द हैं-वादे हैं वो भी विदेशी भाषा के, जैसे चाहे घुमा देते हैं। अब अपने अटल जी को ही देखो, चौबीस वैसाखियों पर खड़े हैं। बैसाखियाँ मौन हैं, अटल जी तने हैं। सच तो ये है कि हमारे अटल जी विकास की एवज़ विनाश पर उतरे हैं। नौकरियाँ खाने पर लगे हैं। अब! देखो ना सरकारी नौकरियों पर ही रोक लगाए जा रहे हैं। निजीकरण के साथ-साथ विदेशियों को बढ़ावा देने पर उतारू हैं। शिक्षा पद्धति तो बदल ना पाए, पर निजी शिक्षा-संस्थानों का उदय कर ग़रीब-गुरवाओं को शिक्षा से वंचित किए जा रहे हैं। कुटीर उद्योग तो क्या समूचा भारतीय उद्योग विदेशी हाथों लुट-सा गया है। अब बेरोज़गारी बढ़ेगी तो, गुंडागर्दी भी बढ़ेगी ही। पर उनकी भाषाशैली उनके मंसूबों पर परदा डाल देती है। जनता शब्दजाल में फँसकर रह जाती है।
इतना सुन, मैं थोड़ा-सा आगे बढ़ा ही था। देखा कि मेरी पत्नी एक मंच के मुहाने पर पड़ी कुर्सी पर किसी तारिका की भूमिका में सजी-धजी महफ़िल को रौशन कर रही है। सच! मैंने उसे पहली बार सजे-धजे देखा था। इससे पहले कभी नहीं। मेरे लाख कहने पर भी कैसा सँवरना, कैसा सजना। इस दृश्य को देखकर मुझे ऐसा लगा कि शायद मैं कहीं ग़लती पर हूँ। आख़िर औरत-मर्द के रिश्ते यूँ ही नहीं हैं? कुछ भी तो कमी नहीं है घर में। कमी है तो महज़ इतनी है कि वो मुझे अपने इशारों पर नचाना चाहती है। मुझे ये स्वीकार नहीं। आख़िर मेरी भी अपनी कोई सोच है। कोई सपना है। क्या बुद्धि और कुबुद्धि में कुछ भी अंतर नहीं? क्या मेरा खोट महज़ विचारवान होना है? मेरा हाथ नहीं उठता, क्या यही मेरा दोष है? इसका खोट कुछ भी नहीं? ना घर से कोई सरोकार, न बच्चों से। खड़े-खड़े, मैं ऐसे ही अनेक विचारों में डूबा जा रहा था कि वो चेहरे पर अपनापन का भाव लिए सहजता से मेरी और बढ़ी और चलती बनी। मैं हक्का-बक्का यह सब देखकर खड़ा रह गया। मैं पुनर्विचार करने को ही था कि अचानक मेरा सपना टूट गया।
नींद टूटी तो देखा कि मेरी पत्नी हाथ में चाय का प्याला लिए मेरे सिरहाने खड़ी थी। अब उसमें रात वाला ग़ुस्सा नहीं था। बड़ी सहज लग रही थी, मानो मेरी असहजता पर हँस रही हो। पता नहीं ये उसका प्यार था या चिढ़ाने की एक और चेष्टा। मैं प्याला थामने का साहस नहीं जुटा पाया। वो मेरे पास बैठ गई और बोली, “क्यूँ रात का ग़ुस्सा अब भी नहीं गया क्या? अब छोड़ो भी घर गृहस्थी में तो ऐसा होता ही रैवे है। लो! चाय पी लो। प्याले की ओर मैं हाथ नहीं बढ़ा पाया। आख़िर पत्नी ने मेरे होंठों से प्याला सटा दिया और मैं गटागट चाय पी गया। दिमाग़ कुछ हल्का हुआ। विचारों की तंद्रा टूटी। औरत की जगह एक पत्नी मेरे सामने खड़ी मुस्कुरा रही थी।
1 टिप्पणियाँ
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बेहतरीन शब्द चित्र आंखों के सामने सब कुछ कहा अनकहा घूम गया !
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