आज का कवि लिखने के प्रति इतना गंभीर नहीं, जितना प्रकाशित होने व प्रतिक्रियाओं के प्रति गंभीर है

15-06-2024

आज का कवि लिखने के प्रति इतना गंभीर नहीं, जितना प्रकाशित होने व प्रतिक्रियाओं के प्रति गंभीर है

तेजपाल सिंह ’तेज’  (अंक: 255, जून द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)

 

भारत एक लोकतांत्रिक देश है। यहाँ विभिन्न संस्कृतियों, कलाओं, धर्मों एवं भाषाओं का संगम है जिसमें विविध समुदायों, वर्गों के लोग जीवन यापन करते हैं। सबका जीवन समान और सुचारु रूप से चल सके इसलिये एक संविधान का निर्माण किया गया है; जिसमें सम्पूर्ण देशवासियों के लिए एक सामान व्यवस्था है एवं दलित, शोषित, उपेक्षित, ग़रीब, असहाय और पीड़ित वर्ग के हितों के रक्षा के लिए बहुत से क़ानून हैं। परन्तु आश्चर्य होता है कि ये लोग शोषण मुक्त नहीं है। जिसकी लड़ाई आज़ाद भारत में भी चल रही है। बहुत से संगठनिक, राजनीतिक, साहित्यिक आन्दोलन देश के कोने-कोने में चल रहे हैं। अपने हक़ के लिए हर कोई आवाज़ उठा रहा है। मानव-मानव में समानता के लिए जद्दोजेहद चल रही है। सभी यह चाहते हैं कि सामान अधिकार और सम्मान मिले। इसी लड़ाई को समाज में सदियों से बेबस और बदतर ज़िन्दगी जी रहे दलित वर्ग लड़ रहे हैं। उन्होंने अपनी आवाज़ साहित्य के विभिन्न विधाओं के माध्यम से उठाई है। कविता उसी सबमें एक सशक्त विधा है, जिसने दलित समाज के लोगों के अंदर चेतना का संचार किया है। इन शोषित लोगों ने अपने दुःख दर्द को कहने के लिए स्वयं की भाषा, सौन्दर्य का निर्माण किया। तब हिन्दी साहित्य के प्रबल समर्थकों ने दावा किया कि दलित हित में हिन्दी साहित्य में बहुत कुछ लिखा गया है। परन्तु कितने भी दावे किये जाएँ, नारे लगाये जाएँ, सब व्यर्थ हैं। क्योंकि दलित रचनाकारों ने सिद्ध कर दिया है कि उनमें वह संवेदना नहीं है जो दलित साहित्य में है। 

यह कहना ग़लत नहीं होगा कि व्यावसायिकता कविता को लील जाती है। ज्ञात हो कि मानव की मुक्तावस्था ही कविता को जन्म देती है। अनुभूतियों का वह स्तर जहाँ पहुँचकर मानव स्वयं को भूल जाता है—अपनी निजता को लोक-सत्ता में लीन किए रहता है, वहाँ मानव जैसे कवि को जाता है। संकुचन समाप्त प्रायः हो जाता है। यूँ जानिए कि प्रत्येक बच्चा जन्मजात एक कवि होता है, यदि उसे होने दिया जाए। कविता कवि की अपनी ही बात हो, आवश्यक नहीं। कविता अनुभूति-योग का परिणाम भी हो सकती है। यह आवश्यक नहीं कि कवि की अपनी पीड़ा की अनुभूति किसी और को हो, किन्तु औरों की पीड़ा कवि की पीड़ा हो सकती है। 

जगत एक है किन्तु इसके रूप अनेक हैं। ठीक इसी प्रकार कवि एक है—हृदय एक है, किन्तु भाव अनेक हैं। इस विभिन्न प्रकार की भावनात्मकता का निर्वाह, परिष्कार और कार्य-व्यापार को तभी समझा जा सकता है, जब यह भावनात्मकता जगत के भिन्न-भिन्न रूपों, व्यापारों या तथ्यों के साथ हो जाए; जगत की बात करे। काव्य-दृष्टि में भाव-पक्ष मूल होता है—विषय अलग-अलग हो सकते हैं। परिणामतः सभ्यता और संस्कृति के परिवर्तन के साथ-साथ कवियों के लिए भी भाव-पक्ष में परिवर्तन हो अथवा न हो, यह सवाल हमेशा बना रहता है। ज़ाहिर है, काम अवश्य बढ़ जाता है। 

कविता मूलतः सभ्यता और संस्कृति की विवेचना है। कविता की सार्थकता भी इसी में है कि उसमें रसात्मकता हो न हो, किन्तु क्रांति-बोध ज़रूर सम्मलित हो। कविता में मीरा के जैसा भक्ति-भाव ही पर्याप्त नहीं, महाराणा प्रताप को भूख-प्यास से उबरने के लिए संयम और विवेक उत्पन्न करना भी कविता का मूल है। बात सीधी-सपाट हो या चक्रदार लेकिन लक्ष्य से विमुख न हो। कविता की यही मूल आवश्यकता है। 

समाज में व्याप्त विकृतियों, भ्रांतियों, ग़ैर-बराबरी और कट्टरता का काव्यात्मक रूप में बखान भर करते रहना कविता नहीं कही जा सकती—अपितु समाज में व्याप्त विकृतियों, भ्रांतियों, ग़ैर-बराबरी और कट्टरता के बखान के साथ-साथ उनके निराकरण के लिए दिशा देने; उनसे निबटने के लिए भाव-भूमि प्रस्तुत करने से कविता समग्र होती है। किन्तु व्हाटएप और फ़ेसबुक के आने से साहित्य की गरिमा को ख़ासी चोट लगी है। लोगों का आम आरोप है कि फ़ेसबुक ख़राब कविताओं से भरा हुआ है। प्रस्तुत हैं हिंदी भाषा और कविता की वर्तमान स्थिति पर संजय कुंदन विचार। कहना उचित ही लगता है कि एक तरफ़ हिंदी में कविता के अंत की बात की जाती है, दूसरी तरफ़ कवियों की बाढ़ आ गई है। . . . लिख कौन रहा है, मध्यवर्ग के लोग, जैसे कोई स्कूल टीचर है या कुछ और। जिसके पास यह क्षमता है कि अपनी किताब ख़ुद छपवा सके। उसे लगता है कि उसकी एक किताब आ गई तो वह भी नामी लेखकों के ग्रुप में आ गया है। ग़ौर करने की बात है आज रचना की हैसियत गिरी है, किताब की नहीं। किताब का आज भी महत्त्व है। आदमी किताब पढ़कर ही इम्तिहान पास करता है, नौकरी पाता है। हम सब किताब पढ़कर ही बड़े हुए हैं। लेकिन ऐसे लोग फ़ेसबुक पर ज़्यादा हैं। . . . फ़ेसबुक एक तरह का क्लब है। इस पर लिख रहे ज़्यादातर लोग कविता का मर्म नहीं जानते। कविता को लेकर उनके भीतर कुछ भ्रमात्मक वाक्य बैठे हुए हैं जैसे कि कविता भावनाओं की अभिव्यक्ति है। उनके लिए कविता का फ़ॉरमैट क्या है—छोटी-बड़ी लाइन। अब छंद का मामला ख़त्म हो गया है। सो ऐसे लोगों के लिए कविता लिखना बहुत आसान हो गया है। अब कोई मन की भावना इस तरह लिख सकता है कि ‘काले बादल छाये रहे, बारिश होती रही, मन भीगता रहा।’ अब इस पर ढेरों लाइक्स आ गए। लिखने वाला प्रसन्न हो गया। कविता केवल भावनाओं की अभिव्यक्ति तो है नहीं। वह उससे आगे की चीज़ है। लेकिन यह फ़ेसबुक पर लिख रहे अनेक लोगों को पता ही नहीं है। दरअसल वे पढ़ते नहीं हैं इसलिए वे अच्छी कविता समझ नहीं पाते। तकनीक ने कविता को भ्रमों से भर दिया है। हालाँकि फ़ेसबुक पर अच्छे कवि भी लिखते हैं। कुछ अच्छी कविताएँ भी समय-समय पर दिखाई दे जाती हैं। 

कुंदन जी आगे कहते है कि अच्छी कविताओं का कम होना हमारे समय की दिक़्क़त है। अच्छी कविताएँ अच्छे कवियों के पास भी कम हैं। ज़्यादातर संग्रहों में प्रायः चार-पाँच ही अच्छी कविताएँ होती हैं। एक बार सत्यजीत राय से किसी ने पूछा था कि आपने फ़िल्म बनाना किससे सीखा। उन्होंने कहा, बायसिकिल थीफ़ के डायरेक्टर डेसिका से। उनका कहना था कि यह फ़िल्म उन्होंने पचास बार देखी। एक-एक शॉट को कई बार देखा। अब बताइए, आज कौन इस तरह सीखने को तैयार है। लोगों को लगता है सीखने की ज़रूरत ही क्या है। 

ज़्यादातर कवियों द्वारा कहा जाता है कि पाठक कम हो गए हैं। क्या कोई ऐसा वक़्त था जब कविता के ढेरों पाठक थे? पहले तो छापेखाने भी आज जितने नहीं थे। चाँद जैसी पत्रिका पढ़े-लिखे घरों में आती थी। बच्चों की कई पत्रिकाएँ छपती थीं, पर ऐसा भी नहीं था कि वे लाखों में बिकती थीं। पहले तो लेखक ख़ुद ही अपनी किताब छपवाते थे। हिंदी प्रदेश की आबादी 60 करोड़ है, उसका एक प्रतिशत 60 लाख हुआ। उसका एक प्रतिशत 60 हज़ार हुआ। इतने लोग तो पढ़ते ही होंगे। हाँ, सभी लोग एक ही कवि को नहीं पढ़ते। कोई अज्ञेय को पढ़ता है तो कोई रघुवीर सहाय को। इस तरह एक कवि की पाँच-छह हज़ार किताब बिकती हैं। लेकिन यह बात प्रकाशक बताते नहीं। लखनऊ के पुस्तक मेले में मैंने अपनी किताब का पेपरबैक संस्करण देखा तो भौचक रह गया। मुझे इसके बारे में पता ही नहीं था। वैसे बांग्ला और ओड़िया में हिंदी की तुलना में कई गुना ज़्यादा किताबें बिकती हैं। आख़िर इसकी वजह क्या है? इसके पक्ष में तर्क दिया जाता है कि आज़ादी की लड़ाई हमने हिंदी और भारतीय भाषाओं में लड़ी, लेकिन आज़ादी के बाद हमने उन्हें छोड़ दिया। सारा काम अंग्रेज़ी में होने लगा। इस तरह हम तो आज़ाद हो गए, लेकिन हमारी अपनी भाषा ग़ुलाम हो गई। 

यदि ये कहा जाए कि हिंदी को राजभाषा क़रार देने के बाद प्रशासनिक स्तर पर हिन्दी के कार्यांवयन पर ख़ासी गिरावट आई है। क्योंकि सरकारी कार्यालयों में मूल लेखन पहले अंग्रेज़ी में किया जाता है और फिर उसका हिन्दी में अनुवाद प्रसारित किया जाता है। अब तो अधिकतर हिंदी प्रेमियों ने यह भी कहना शुरू कर दिया है कि हिंदी को मिला राजभाषा का दर्जा वापस ले लिया जाए। हिंदी अपनी ताक़त के बूते अपनी जगह बना लेगी। लगता है कि यहाँ थोड़ा विषयांतर हो गया है, मैं पुनः कविता की ओर लौटता हूँ। 

बड़े दुःख की बात है कि आजकल कुछ अच्छे और संभावनापूर्ण कवि भी ज़रूरी संवेदना और प्रतिभा से संपन्न होने के बावजूद कविता में अपने कथ्य की कंगालियत को अपनी शैली के नीचे छिपाने की कोशिश कर रहे हैं। यह वैसा ही प्रयत्न है जैसे कोई व्यक्ति अपने अंधेपन को रंगीन चश्मे के नीचे छिपाकर लोगों को ख़ुद के दृष्टि संपन्न होने का भरोसा दिलाने की अनावश्यक प्रयास करे। कई कवि तो इस प्रयास के दौरान गूढ़ दर्शन का ऐसा घटाटोप उत्पन्न करते हैं कि पाठक अस्पष्टता के अतल महासागर में डूबता-उतरता रहता है। वह अपने हाथ-पैर मारकर किनारे तो आना चाहता है परन्तु कविता उसे किनारे आने ही नहीं देती। या यूँ कहें कि पाठक को कहीं किनारा दिखता ही नहीं। मैंने ऐसे कवियों को अपनी अज्ञानता का उत्सव मनाते हुए, मूढ़ता के समक्ष दंडवत करते देखा है। इन्हें अपनी कविता की अपेक्षा पाठकीय की सच्ची-झूठी प्रसंशा से अधिक प्यार है। 

इस बारे में माननीय फूलचंद गुप्ता फ़ेसबुक पर ‘कुपोषित कविता’ शीर्षक से लिखते हैं, “कविता कवि की संतान होती है और हर कवि काव्य-सृजन के पूर्व प्रसव-पीड़ा का अनुभव करता है। मुझे इस बात की सच्चाई में यक़ीन है। किन्तु इधर देखने को मिला है कि कुछ कवि कविता को जन्म देने के पश्चात अपनी इस प्रिय संतान के प्रति अपना दायित्व नहीं निभाते। सृजन के बाद कविता का भी संतान की तरह ही लालन-पालन करना होता है। उसे नहलाना-धुलाना होता है। साफ़-सुथरा करना-रखना पड़ता है। उसे सजाना-सँवारना होता है। उसका जतन से पोषण करना होता है। किन्तु अक्सर कवि ये काम नहीं करते। फलतः कविता कुरूप और कुपोषित रह जाती है। फिर जैसा कि स्वाभाविक है, रेलवे पटरी या पुल के नीचे जिस तरह पड़े-पड़े कुपोषण के शिकार बच्चे दम तोड़ देते हैं, कुपोषित कविता भी डायरी या किताब के पन्नों में पड़े-पड़े दम तोड़ देती है। कुछ कवि तो ऐसे भी हैं जो अपनी संतति-कविता को पूरे समय तक गर्भ में रहने ही नहीं देते। उन्हें बड़ी जल्दी होती है महाकवि बन जाने की। फलस्वरूप वे कविता की प्रिमैच्योर डिलीवरी कर देते हैं। कविता-भ्रूण का अभी पूरी तरह विकास भी नहीं हुआ होता, भ्रूण की देह में अभी प्राण भी नहीं आया होता इसके पूर्व ही कवि स्वयं सिजेरियन कर कविता को बाहर निकाल लेते हैं। ऐसी कविता कैसी होगी? अधमरी या मरी हुई। भाई मेरे! प्रसवपीड़ा को पूरी तरह महसूस करो। उस सृजन-पीड़ा को भोगो। उसका आनंद लो। पीड़ा का आनंद! आनंददायक पीड़ा! इंतज़ार करो। जब कविता का स्वाभाविक जन्म होगा, कविता स्वस्थ, सुडौल और सर्वांगीण सुंदर होगी।” 

माननीय प्रभात गोस्वामी जी कवि/लेखक की पीड़ा पर कुछ इस प्रकार अपने विचार प्रकट करते हैं कि जब भी कोई लेखक अपना काम पूरा करके उसे किसी समाचार पत्र या अख़बार में प्रकाशित करने के लिए भेजता है तो उसकी चिंता बहुत बढ़ जाती है। आजकल हर लेखक को लेखन में जन्म से दोगुनी पीड़ा होती है। पहली बार तब, जब वह अपने काम को जन्म देता है, और दूसरी बार तब, जब उसका काम किसी अख़बार या अख़बार में उसका पहला पन्ना भरता है। इंतज़ार के पल कितने कठिन होते हैं ये सिर्फ़ एक लेखक ही समझ सकता है। एक लेखक रात में बाथरूम जाता है और अपना मोबाइल खोलकर ई-पेपर का इंतज़ार करता है। इंतज़ार करना कितना कठिन होता है यह केवल एक लेखक ही समझ सकता है। आजकल लिखना लिखने से भी ज़्यादा महत्त्वपूर्ण हो गया है। इसे प्रकाशित हो जाने के बाद इसे विभिन्न सोशल मीडिया प्लैटफ़ॉर्म पर प्रकाशित करना भी उसकी चिंताओं में शमिल है; चिंता यह भी है कि अगर हमारे पसंदीदा लेखक की रचना पहले प्रकाशित होगी तो हमारी बारी कब आएगी? इसी चिंता में हर लेखक/कवि दुबला हो जाता है। किसी के बाल सफ़ेद हो रहे हैं तो किसी का शुगर लेवल बढ़ रहा है। 

आज मुक्त-छन्द कविता पर नाना-प्रकार से उँगलियाँ उठ रही हैं। वर्तमान दौर में दो तरह से कविता हो रही है। एक मन से, दूसरी मस्तिष्क से यानी लिखी जा रही है। ऐसा होना स्वाभाविक ही लगता है। समग्र साहित्य ने समय के साथ-साथ ख़ुद भी करवट बदली है। भक्ति-काल और छायावाद के बाद कविता मुक्त छन्द में लिखी जाने लगी। शिक्षा का क्षेत्र जो बढ़ गया। शिक्षा के प्रचार और प्रसार के साथ-साथ मन के बजाय मस्तिष्क ने ज़्यादा काम करना शुरू जो कर दिया जो व्यावहारिक/स्वाभाविक ही है। अक्सर कहा जाता है कि आज कविता भी गद्य में लिखी जा रही है। क्या कविता पर भी किसी का ‘पेटेंट’ है कि कविता ऐसे लिखो? समय परिवर्तन के चलते न जाने कितने आयाम बदलते चले जाते हैं, फिर कविता (साहित्य) पर ये सवाल क्यों? आज कविता में छ्न्द-विधान का सवाल उठाना प्रासंगिक नहीं है। छ्न्द-विधान की परिधि में रहकर कविता करना शायद आज के कवि के वश की बात नहीं है, क्योंकि आज की कविता नितांत मन की बात नहीं है, दिमाग़ की भी है। फिर भी यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि छ्न्द-विधान आदि शर्तों की तलाश साहित्य-शिक्षकों अथवा आलोचकों की आवश्यकता हो सकती है, रचनाकार की नहीं। किन्तु कविता को प्रत्येक मायने में व्यावसायिकता से परे तो होना ही चाहिए।

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