मैं सड़क हूँ

15-09-2024

मैं सड़क हूँ

अवनीश कश्यप (अंक: 261, सितम्बर द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)

 

मैं सड़क हूँ, 
पहले कच्ची थी, 
टूटी भी गड्ढों के साथ, 
छाँव को लेकर पौधों से यारी थी, 
वहाँ सुनती कई कहानियाँ और बात। 
 
नाज़ था लोग हम पर चलते हैं, 
इंसानियत और विनम्रता के झोले लेकर, 
हाँ थे कपटी तब भी कई, 
पर लोग जुड़े थे, 
ये है तब की बात। 
 
फिर विकास नाम का शख़्स आया, 
तोड़ गया वो पुरानी यारी
अब नीचे हूँ, थोड़े किनारों में भी, 
पक्का करता है मुझ पर राज, 
सायं-सायं सुनती, चलती कार और मोटरगाड़ी, 
न कोई क़िस्सा सुनता है, 
न दादी अम्मा से कोई बातें करता है
कहते हैं यही है विकास का बात। 
 
देखती हूँ बदलाव, लोगों के आमद में
फटे जूते से नई जींस तक, 
पोस्टमास्टर के साइकिल से जाती लोगों की हर तरह की ख़बर, 
को एक बाक्स से दूर दूर जाते तक, 
नहीं जलती मैं पक्के से, 
न ही किसी बाक्स से, 
मैं रोती हूँ कहानियों को लेकर, 
दादी अम्मा के चेहरों पर, 
लोगों की तहज़ीब पर, 
इंसानी फ़ितरत पर, रिश्तों पर। 
 
मैं सड़क हूँ, 
पहले कच्ची थी, 
टूटी भी गड्ढों के साथ, 
अब विलिनता की ओर अग्रसर हूँ, 
पुरानी हर सभ्यताओं के साथ। 

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