युगांतरण
अवनीश कश्यप
लाशों की भीड़ है,
कोई मुझे ढूँढ़ने आए,
शायद ऐसा कोई बचा हो।
धू-धू कर जल रही लाशों की अग्नि की ध्वनि,
पूरे शहर में ऐसे कौंध रही है
जैसे शहर में कोई न बचा हो
जैसे मानवी मन वाला बॉम्ब आज ख़ूब ज़ोर से फटा हो,
और मानवीय कण-कण को तबाह कर चुका हो।
सुबह का वक़्त है,
आग की लाली,
सूर्य को ढकने में सक्षम है।
कचौरी गली में नसीम चाचा और पंडितजी
खी-खी, खी-खी कर जैसे दुकान के सारे
कचौरी को ख़त्म करने की लालसा में आगे बैठे हैं
मैं पंडितजी के पाँव छूता हूँ, नसीम चाचा गले लगा लेते है
और फिर अचानक सब शून्य पड़ जाता है,
धूल बन जाती है कचौरी गली, दुकान, पंडितजी और
नसीम चाचा की खी-खी,
मैं आगे बढ़ जाता हूँ।
भगवान की मूर्ति, मंदिर, और पास ही सटे मस्जिद का
बाल भी बाँका नहीं हुआ
देश का तिरंगा, भगवा झंडा और हरे पताके
को आग मिट्टी में नहीं मिला सकी,
मिट्टी में मिले वो सारे घर, सारे लोग
जो इसके क़रीब रहने का ढोंग करते थे।
मैं घाट पहुँच जाता हूँ,
कोई हर हर गंगे कर पाप धुलने को किनारे नहीं आया है,
मणिकर्णिका शांत है,
माँ गंगा सदियों की तरह मुस्कुरा रही हैं
और अपने गति में मुझे नए युग में ले जाने को बुला रही हैं
मैं ख़ुद को जैसे ही उन्हें सौंपता हूँ
मेरी नींद कुछ मोटर गाड़ी के अनावश्यक और
बग़ैरत आवाज़ से टूट जाती है
आलस्य में इक आलाप लेता हूँ—
हे भगवान कल्कि आप कब पधारेंगे?
और उठकर कचौरी गली की और जाने की तैयारी
में लग जाता हूँ,
आख़िर बनारस तो हर वक़्त ज़िन्दा रहता है और
ज़िन्दा रहेगा महाराज,
सपनों में भी और सपनों के बाहर भी।