राहत

डॉ. वेदित कुमार धीरज (अंक: 175, फरवरी द्वितीय, 2021 में प्रकाशित)

सम्हलना सीखा है बहुत जद्दोजेहद के बाद
यूँ ही नहीं बंजर पर बसर करना आया मुझे
 
कश्तियाँ किसी के दरबार तक आया नहीं करतीं
जो जाना है उस पार तो दरिया में उतर  
 
बहुत चमकाया है मैंने अपने इस हुनर को यारो
मेरे चेहरे पर जो चमक है दिल पर चोटों का असर है
 
मेरे हालात तुम्हें बताने की ज़रूरत पड़ना
इस बात का गवाह है मैं तेरे दिल नहीं, ज़ेहन में हूँ
 
तुम सिर्फ़ किताब के पन्नों तक ही मत समझना मुझे
कई सभ्यताएँ अभी सुपुर्द-ए-ख़ाक हैं, दर्ज नहीं  
 
फ़ज़ीहत हुई थी आज़ाद ख़यालियों की
बादल फिर भी बरसते हैं प्यासा नहीं छोड़ा करते
 
ये नदियाँ हैं जो ज़ोर की बारिश में बिखर जाती हैं
समुन्दर किसीके साये में सर रखकर रोया नहीं करते
 
यूँ ही नहीं सब शायर से प्यार कर बैठे
ख़ुद को भुला था वो, दूसरों के दर्द कहते-कहते
 
मुफ़लिसी में भी ज़मींदारी की जज़्बे ईमान की
अमर हो गया मर के भी वो मरने वाला
 
चलो अब हम भी सियासत करते हैं
हर दर्द पर अब से ख़ामोश रहते हैं।

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें