अहं ब्रह्मास्मि
डॉ. मधु सन्धु
कितने काम होते हैं बाबूजी के। आज सोचती हूँ—माँ कैसे निपटाती होगी?
बाबूजी अपने फिजिकल ट्रेनर की प्रतीक्षा कर रहे हैं। सुबह से कुर्सी पर बैठे हैं।
“पंखा चला दो।”
“एक नंबर पर करना।”
“दो नंबर पर करना, ठीक है।”
“गुनगुने पानी में नींबू डाल कर देना।”
अब बाबूजी गिलास ही नहीं पकड़ रहे।
“तुम तो गिलास भरकर ले आई हो।”
“दूसरे गिलास में लाओ।”
“यह कौन सा गिलास है?”
“आधा ही पी लो बाबूजी। क्या हो गया है?” मैं थोड़ा खीज सी गई।
माँ ने इनकी आदतें बिगाड़ रखी हैं। अब मुझे भुगतना पड़ रहा है।
फिर से पुकारने लगे, “चम्मच लाना।”
“ज़रा जीरे वाले बिस्कुट देना।”
“आज अच्छे नहीं लग रहे।”
“कोई और बिस्किट हैं घर में?”
“रखा करो न।”
“मार्च आ गया है। यह चादर अब गरम लगने लगी है। बदल दो।”
“कुछ देर में बदल देना। ज़रा अख़बार देख लूँ।”
“मेरी अलमारी से कुर्ता-पाजामा निकाल दो।”
“पतले वाला कुर्ता निकालना।”
“मेज़ पर रख दो।”
यह नहीं कि बाज़ू लंबी करके बाबूजी मेज़ से कुर्ता पाजामा उठा लें।
“पकड़ाना।”
“कुर्ता कौन सा निकाला है?”
“वो वाला दिखाना।”
“चलो यही ठीक है।”
अपनी कुर्सी से उठना न उन्हें भाता है न इसकी आदत है।
वहीं से आवाज़ देंगे—सेल देना एक।
“रैपर से निकाल दो।”
“माऊस में सेट भी कर दो।”
मस्तमौला होना, बिना चिंता के चिंतन मुद्रा बनाए रखना—सामान्य है उनके लिए।
कल की ही बात है—
“फ़्रूट ठंडा क्यों है?”
“यह कौन से दहीं की लस्सी है?”
“सुबह ही तो देकर गया है।”
“मेरे लिए ब्रांडेड दही का ही प्रयोग किया करो।”
इतने में वर्कआउट करवाने वाला आ गया।
चलो अब अपनी चाय माइक्रो करके बैठ कर पी लेती हूँ। ओह!
वर्क आउट करते भी घर उनके वन, टू, थ्री की तेज़ आवाज़ों से, तालियों-सी आवाज़ों से गूँजने लगता है। शुक्र है कि बच्चे तब तक स्कूल जा चुके होते हैं, नहीं तो . . . शैतान तो वे जी भर कर हैं।
मन और मौन का अद्भुत और अटूट रिश्ता—गढ़ फतेह करने जैसे इन कामों से थक सी जाती हूँ। पर बाबूजी कभी मुस्कान के पीछे के श्रम, खीज के पीछे के आंदोलनों और ख़ामोशी के पीछे के शोर को समझ ही नहीं पाये। मैंंने किन्नू छील दिये तो बाबूजी मैंगो शेक की बात करेंगे, आम काट दिये तो उनका मन किन्नू जूस को होगा। नींबू पानी बनाओ तो जलजीरा चाहिए, जलजीरा पकड़ाओ तो नींबू पानी। एक दिन कहेंगे—क्या रोज़ ग्रेवी वाली सब्ज़ी बना देती हो और अगले दिन पूछेंगे आज ग्रेवी वाला कुछ नहीं बनाया। पापड़ भून कर दो तो उन्हें तले हुए चाहिए, तल कर दो तो कहेंगे—इतना तेल इस उम्र में कहाँ पचेगा।
बाबूजी फ़िटनेस के शौक़ीन रहे हैं। निर्धारित विशेष स्थलों पर जाकर कसरत करना उन्हें अच्छा लगता है। यह उनकी हॉबी भी है और टाइम-पास भी। इसे वे मर्दाना ज़रूरत भी मानते हैं और अपने को दूसरों से श्रेष्ठ और स्वस्थ मानने का कारण भी। वहाँ तो हर उठक-बैठक करते होंगे, जबकि घर में सहयोग तो छोड़ो अपना गिलास तक नहीं उठाएँगे। क्या जानते नहीं कि असली ठिकाना तो घर ही होता है, घर में मान-सम्मान न हो तो मित्र संबंधी टके का नहीं समझते। तब . . . सुबह उठते ही नादिरशाही हुकुमों का दौर शुरू हो जाता था। ग़ुस्सा तो नाक पर रहता। उनके घर में आते ही सब अपने-अपने कमरों में दुबक जाते थे। घर में कभी किसी का दिल नहीं जीत पाये बाबूजी। ज़मीन से डेढ़ इंच ऊपर ही रहते थे सदैव।
यूँ तो घर से निकलने से पहले हाथों पर लोशन की मसाज करेंगे, पर खाना खाने के बाद हाथ धोएँगे कभी नहीं, पहले हाथ पर्दों से पोंछा करते थे और अब होटल की तरह पेपर नेपकिन से।
माँ भले ही जीवन भर आँसुओं से मुँह धोती रही हो, हम पर कभी आँच नहीं आने दी। माँ को हार्ट अटैक आया था। चिंतातुर भाई अपने सेमेस्टर के पेपर बीच में छोड़ बोर्डिंग हाउस से लौट आया। गुमसुम, पर हर काम में एक्टिव। डॉक्टरों के आस-पास। भूख–प्यास को तिलांजलि दे दिन-रात अस्पताल में। पर उस दिन घर गई तो बाबूजी ऊँची आवाज़ में स्टीरियो लगाए, लॉबी में मस्त घूम-झूम रहे थे। उन चार दिनों में वे एक बार ही अस्पताल पहुँच पाये। एकदम अनासक्त, आत्मलीन।
दिल के दिलेर हैं। तीन बार उन्हें डायमंड रिंग बनवा कर दी गई। पर महीनों में ही वह ग़ायब हो जाती। बाबूजी के बाबे, उनके गुरु देव, तांत्रिक, योगी-भोगी, वस्तुवादी ही हैं, जिनकी आर्थिक ज़रूरतें/पिपासायें सुरसा के मुख-सी सब निगल सकती हैं। कहते हैं—अंधभक्त होने के लिए प्रचंड मूर्ख होना अनिवार्य है—लेकिन . . . कैसा विरोधाभास है . . . बाबूजी . . . वे तो अपने को संसार का सबसे बुद्धिमान व्यक्ति मानते हैं। मित्र भी ऐसे ही रहे हैं—छोटा पहलवान, बड़ा पहलवान। इनका नैकट्य उन्हें उल्लास और श्रद्धा से भिगो जाता। अपनापन देता। वे उनके अमरता देने वाले देवगुरु हैं। हर कामनापूर्ति का उपादान हैं। साक्षात् भगवान हैं। फ़िटनेस ट्रेनर हैं। डाइटीशियन हैं। घर तो सिर्फ़ विश्राम स्थल है, परिवार चाकर और उत्तरदायित्व ज़ीरो।
हमेशा से ही आत्म मुग्ध, आत्मकेंद्रित और आत्मरत रहे हैं बाबूजी। आसमान पर उड़ने वाले, आसमान से बातें करने वाले—सदैव दैवी करिश्माओं की प्रतीक्षा में। दादी ने सोचा था—बहू आकर इसे ठीक रास्ते पर ले आयेगी और बहू सोचती—क्या पत्थर गले बाँध दिया है। विश्वास ही नहीं होता कि जीवन में इतने समझौते कोई कैसे कर सकता है? गले में पड़े ढोल को भी बजाने की हद होती है! घर में बाबूजी की ज़ुबान और हाथ ख़ूब चलते थे, शायद इसीसे मम्मी भयाक्रांत रहती थी, एकदम मौन। आर्थिक उत्तरदायित्व भी कभी नहीं निभाया। सामान्य तो कभी हो ही नहीं सके—घर में बेहद उत्तेजित, बाहर अत्यधिक शांत। प्रभुत्व कामना और हीन भाव से बार-बार जूझते। निहायत निजी फ़ैसले लेने का हक़ भी माँ को कभी नहीं मिला।
आजकल ऑनलाइन पेमेंट कर अपने को युवा और अत्याधुनिक बना रहे हैं। कहीं भी जाना हो, अधेला भी नहीं पकड़ते। बस मोबाइल ही हाथ में रखते हैं। रिक्शा, थ्री-व्हीलर, कैब, सब्ज़ी, फल, चाट, पकौड़े—सब का ऑनलाइन ही भुगतान करना चाहते हैं और अगर किसी के पास यह ऑप्शन न हो तो अपना क़द और भी ऊँचा महसूस करते हैं।
अपने से पैंतीस चालीस वर्ष छोटे व्यक्ति से भी ऐसे बात करते मानों वह हम उम्र हो। घर में काम करने वाली लड़की मेरी सबसे छोटी बहन मिस्टी से भी कम उम्र की है, बस बाबूजी को छोड़कर सभी उसे बेटा कहकर बुलाते हैं।
कुछ ख़रीददारी करने जाते, किसी सरकारी दफ़्तर में जाना पड़ता—सबसे पहले सामने वाले को यही बताते कि वे एक सम्माननीय अधिकारी पद से सेवा निवृत हैं। अनेक विद्यार्थी तो ऑफ़िसर बन चुके हैं। सामने वाला भले ही भाव न दे।
उनका हर वाक्य—मैं पढ़ा लिखा हूँ से शुरू होता। शायद वे सोच ही नहीं पाते कि जिससे बात कर रहे हैं, वह उनसे कहीं बेहतर भी हो सकता है। अपने को याद करवाते रहते कि वे स्कूल-कॉलेज गए हुए हैं। बचपन के उन दोस्तों से अलग हैं जो आज थ्री-व्हीलर चलाते हैं, सब्ज़ी बेचते हैं, पंचर लगाते हैं, दुकानों पर सेल्ज़ मैन हैं, छोले-भटूरे की दुकान पर काम करते हैं, बाबों के पैर घुटने दबाते हैं या कहीं क्लर्क या कर्मचारी हैं। चाहते हैं कि हर पल उनकी प्रशंसा होती रहे। बच्चे-बड़े हर कोई हर पल कहता रहे—आप जैसा कोई नहीं, यू आर ग्रेट, द बेस्ट।
सोचती हूँ इस असंगत यातना शिविर में माँ ने कैसे सामंजस्य बिठाया होगा, संतुलन रखा होगा? किस तत्परता से सब काम निपटाती थी। माँ ने कभी अपने संधर्ष, मौन युद्ध, घाव, दर्द, अकेलापन साझा नहीं किया। समझौते और चुप्पी ही उनके शरणस्थल, मित्र, सखा बने रहे। कहाँ जी पाई कोई पल अपने लिए। दूसरों के लिए जीने का लक्ष्य नियति की तरह उनके साथ जुड़ा रहा। जीवन की सारी प्रतिकूलताओं पर उन्हों ने विजय पा ली थी। सिर झुका कर जीने वाली सिर उठा कर चली गई। तब, जब बाबूजी की आँखों में मोतियाबिंद उतर चुका था, रीढ़ की हड्डी और घुटने कसमसाने लगे थे, दाँतों के बीच का गैप बढ़ने लगा था। कान भी धीमी ध्वनि सुनने से बग़ावत करने लगे थे।
उनका गर्वीला आत्मविश्वास हर पल ‘अहं ब्रह्मास्मि’ का उद्घोष करता रहता है।
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