सेकेंड वाइफ़ – 2

01-10-2021

सेकेंड वाइफ़ – 2

प्रदीप श्रीवास्तव (अंक: 190, अक्टूबर प्रथम, 2021 में प्रकाशित)

मैं उसकी बात चुपचाप सुनता रहा। कोई जवाब नहीं दिया तो वह फिर बोली, 'मैंने कहा न माफ़ कर दो। देखो अब ग़ुस्सा ख़त्म कर दो। जो हुआ उससे मैं बहुत दुखी हूँ। घर पर भी मैं परेशान रहती हूँ। तुम जितना भी मुझे चिढ़ाते थे, चोटी खींचते थे उससे मुझे बिल्कुल भी बुरा नहीं लगता।

’मैं भी तो तुम्हें चिढ़ाती थी, बाल खींच लेती थी। तुम अब यह सब नहीं कर रहे हो तो मुझे बहुत दुख हो रहा है। इन सारी बातों की बहुत याद आती है। इतनी कि अब सपने आने लगे हैं। आज रात ही सपने में देखा कि तुम मेरी चोटी खींच कर भाग रहे थे। तुम्हें मारने के लिए दौड़ाया लेकिन ठोकर खाकर गिर गई। तुम तुरंत लौट कर आए और मुझे उठा कर किनारे बैठाया। मेरी बात मान जाओ ना। ख़तम करो ग़ुस्सा।’

उसकी इतनी बात सुनने के बाद भी मैं चुपचाप बैठा ही रहा। मेरे मन में उसके लिए कोई ग़ुस्सा नहीं था। उस समय मेरी अजीब सी हालत हो गई थी। उससे क्या मेरा मन किसी से भी बोलने, बतियाने का नहीं होता था। मैं चुप रहा तो उसने मेरा हाथ हिलाते हुए कहा, 'तुम कुछ बोलते क्यों नहीं? अगर तुम्हारा ग़ुस्सा सबके सामने मेरे माफ़ी माँगने से ख़त्म हो जाएगा तो मैं अभी सब को बुला कर उनके सामने माफ़ी माँग लेती हूँ।
’तुम सबके सामने जितनी बार चाहो मेरी चोटी खींच लो। अपना नथुनिया वाला गाना जितनी तेज़ चाहो, जितनी बार चाहो, गा लो। रोज़ सबके सामने यह सब करो। मुझे बिल्कुल बुरा नहीं लगेगा। अच्छा लगेगा। मुझे ख़ुशी होगी। मैं सपने में भी तुम्हें मारने को नहीं दौड़ाऊँगी, बिलकुल नहीं गिरूँगी, तुम्हें बार-बार उठाना भी नहीं पड़ेगा। मुझसे पहले ही की तरह बात करो। मैं किसी से भी कुछ नहीं कहूँगी। किसी और को कुछ कहने भी नहीं दूँगी। कभी सच नहीं बोलूँगीं।'

मुझे अच्छी तरह याद है कि यह सब कहते-कहते उसकी आँखों में आँसू आ गए थे। उन्हें देख कर मुझे बड़ा दुख हुआ। लेकिन क्या कहूँ, क्या करूँ मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा था। मेरे फिर चुप रहने पर उसे लगा कि मैं नाराज़गी ख़त्म नहीं कर रहा हूँ, ज़िद पर अड़ा हुआ हूँ, तो वह फिर बोली कि, 'तुम समझते क्यों नहीं हो? यह नथुनी मैं कोई फ़ैशन में नहीं पहनती।
’मैं जब छोटी थी तब एक बार सीरियस बीमार हो गई थी। दवा-दुआ कुछ भी काम नहीं कर रही थी। किसी के कहने पर मनौती मानी गई थी। एक बाबा जी के पास जाने पर उन्होंने मंत्र फूँक कर नथुनी दी। उसको पहनने के दो-चार दिन बाद ही मैं ठीक हो गई।

’दुबारा जाने पर बाबा जी ने कहा कि जब-तक इसको पहने रहोगी तब-तक बीमार नहीं पड़ोगी। तभी से मैं इसे पहनती चली आ रही हूँ। एक बार कुछ दिन के लिए उतारा तो फिर बीमार पड़ गई। बीमार पड़ते ही फिर पहन ली। उसके बाद से कभी नहीं उतारती। टूटने पर दूसरी पूजा-पाठ करके ले आती हूँ। तुम्हें अगर यह ख़राब लगती है, तो लो मैं हमेशा के लिए इसे उतार देती हूँ। भले ही बीमार होकर मर जाऊँ।'

यह कहते हुए वह नथुनी उतारने लगी तो मैंने उसका हाथ पकड़ कर रोकते हुए कहा, 'पागल हो गई हो क्या? मुझे बुरा नहीं लगता, अच्छा लगता है। हमेशा पहने रहो। मैं तुमसे ग़ुस्सा नहीं हूँ। बोलूँगा तुमसे।'

इसी समय लंच ख़त्म होने की घंटी बज गई तो मैंने उससे कहा, 'आँसू पोंछ कर क्लास में चलो, नहीं तो यहीं पर चोटी खींचना शुरू कर दूँगा।' यह सुनते ही उसे हँसी आ गई। आँसू पोंछते हुए एकदम उछल कर खड़ी हो गई। चहकती हुई ऐसे आगे-आगे चल दी जैसे किसी मासूम बच्चे ने किसी तितली को बड़ी देर से पकड़ रखा हो और फिर वह अचानक ही उस बच्चे की गिरफ्त से छूटते ही फुर्र से उड़ जाती है।

मैं भी पीछे-पीछे चल दिया। दिमाग़ मेरा ऐसा हल्का-फुल्का सा महसूस कर रहा था, जैसे कि परीक्षा कक्ष से आख़िरी पेपर देकर बाहर निकला हूँ, और मेरे सारे के सारे पेपर्स बहुत अच्छे हुए हों। लेकिन श्वेत सुंदरी मुझे ऐसा कोई मौक़ा नहीं दे रही थीं कि एक बार फिर वैसा ही हल्का-फुल्का महसूस करता। वह या तो बच्चों के साथ व्यस्त हो जातीं, या फिर अपने मोबाइल में।

ट्रेन क़रीब-क़रीब हर स्टेशन पर रुक कर अपनी उपस्थिति दर्ज कराती हुई आगे बढ़ रही थी, लेकिन लंच टाइम आ गया और श्वेत सुंदरी के समक्ष मैं अपनी उपस्थिति दर्ज नहीं करा सका। ट्रेन क़रीब दो बजे एक बड़े स्टेशन पर रुकी। उसे वहाँ जितनी देर रुकना था, दो एक्सप्रेस ट्रेनों की क्रॉसिंग के कारण उससे दस गुना ज़्यादा समय तक रुकी रही।

श्वेत सुंदरी लंच भी साथ लेकर चली थीं। ऐसे में मैं वहाँ बैठा नहीं रहना चाहता था। नीचे उतरने से पहले मैंने संवाद सूत्र स्थापित करने की ग़रज़ से उनसे सामान को देखते रहने का निवेदन किया। उन्होंने बेरुखी से सिर हिला कर हाँ कह दिया बस।

मैं बुझे दीये सा प्लेटफ़ॉर्म पर उतर गया। भूख मुझे भी लग रही थी लेकिन प्लेटफ़ॉर्म पर मिल रही पूड़ी-सब्ज़ी, या समोसा, खस्ता आदि खाने की हिम्मत नहीं कर पाया। ब्रेड-पकौड़े के बाद यह सब खाना बहुत ज़्यादा ऑइली चीज़ें हो जाएँगी यह सोचकर चार केले खा लिए कि अब घर पहुँचने तक फ़ुर्सत मिल जाएगी। इससे पूरी उर्जा भी मिल जाएगी और भूख भी नहीं लगेगी।

इतनी सारी ऊर्जा लेकर मैं फिर अपनी सीट पर आकर बैठ गया। वह ऊर्जा भी मुझे श्वेत सुंदरी का परिचय, पता जानने में कोई मदद नहीं कर सकी। बात वहीं अटकी रही। मैं इन्हें जानता हूँ, मिला हूँ, बार-बार इस श्वेत सुंदरी से मिला हूँ। यह मेरा भ्रम है, इस बात को मानने क्या, मैं ऐसा सोचने के लिए भी तैयार नहीं था।

तरह-तरह के तर्क-वितर्क के बावजूद मैं अपनी बात पर अडिग रहा, बिलकुल उसी तरह कि पंचों की राय ठीक है, लेकिन खुंटवा वहीं गड़ेगा। मेरे आने से पहले श्वेत-सुंदरी बच्चों संग लंच कर चुकी थीं। बच्चे फिर अपनी-अपनी जगह थे और माँ के हाथ पर मोबाइल फिर से आधिपत्य जमाए हुए था।

मैंने सोचा कि कितनी अजीब बात है कि पहले सहयात्रियों के बीच कितनी बातें होती रहती थीं। कितने ही सहयात्रियों के बीच हमेशा के लिए प्रगाढ़ मित्रता हो जाती थी। लेकिन यह न बोल रही हैं, न ही मुझे कोई अवसर दे रही हैं। कहीं मैं प्रयास ही कमज़ोर या ग़लत तो नहीं कर रहा हूँ।

गाड़ी चल दी लेकिन मेरी समस्या जहाँ की तहाँ बनी रही। मैं फिर नथुनी वाली सहपाठिनी की याद में खो कर 'कहाँ?' का उत्तर जानने का सूत्र तलाशने लगा। उस समय श्वेत सुंदरी दोनों पैर ऊपर करके ठीक वैसे ही बैठी थी, जैसे मेरी वह सहपाठिनी लंच टाइम में प्ले ग्राउंड की घास पर बैठ जाती थी। पालथी मारकर।

मेरी दृष्टि बार-बार श्वेत सुंदरी पर जाकर लौट आती। मुझे याद आया कि मैं ऐसे ही अपनी सहपाठिनी को देखा करता था। जब हम-दोनों इंटर में पहुँच गए थे, तब हमारी फिजिकल ग्रोथ-रेट, पढ़ाई, बाक़ी सारे सहपाठियों से दोगुनी थी। वो आठवीं के बाद ही दो-तीन वर्षों में इतनी तेज़ी से बढ़ी कि बीस-बाईस वर्ष की हृष्ट-पुष्ट युवती लगने लगी थी।
उसके अंग इतने विकसित, सुदृढ़ हो गए थे कि वह टीचर्स के बीच चर्चा का विषय बन गए। उसकी सहेलियाँ उसे छेड़तीं। स्कर्ट-ब्लाउज़ उस पर ऐसे लगते जैसे किसी भरी-पूरी औरत ने पहन लिए हों। मैं अब उसकी चोटी तो कम खींचता, लेकिन नथुनिया . . . चिढ़ाता पहले की ही तरह ख़ूब था। लेकिन वह सारे जवाब पहले ही की तरह देती थी। ज़ुबान निकाल कर चिढ़ाना जारी था।

अब मैं उसे देखने, छूने पर अजीब सी सिहरन महसूस करने लगा था। ऐसा करने पर उसके चेहरे पर भी अजीब सी लालिमा छा जाती थी। एक दिन ख़ाली पीरियड में मैं अकेला बैठा हुआ था। तभी वह अचानक ही आकर मेरे एकदम क़रीब बैठ गई।

इधर-उधर की कुछ बातें करने के बाद उसने सीधे-सीधे कहा, ‘तुम अब मुझसे पहले की तरह बातें क्यों नहीं करते। तुम्हें मुझको चोरी-छिपे देखने की ज़रूरत क्यों पड़ने लगी है। इतने बड़े हो गए हो, अब तो फ़्रैंक बनो। बहादुर बनो। तुम मुझे देखते हो तो सच कहती हूँ कि, मुझे अच्छा लगता है। मन करता है कि तुम देखते ही रहो। और मैं तुम्हारे सामने से हटूँ ही नहीं। मैं तो कहती हूँ कि रोज़ हम-लोग कहीं ऐसी जगह मिलें जहाँ तुम जी भर-कर जैसे चाहो वैसे मुझे देखते रहो, और मैं तुम्हें।'

यह कहते हुए उसने मेरा हाथ पकड़ लिया। मुझे लगा कि उसके हाथ बहुत गर्म हैं। जैसे हल्का फ़ीवर हो। हथेलियाँ पसीने से भीगी हुई लग रही थीं। मैं कुछ बोलता उसके पहले ही वह मुझसे बिल्कुल सट गई। लेकिन तभी और साथियों के आने की आहट मिली तो मैंने कहा, 'अब तुम जाओ।' वह तुरंत मुँह बनाती हुई उठ कर चली गई।

मैं यह सब सोच ही रहा था कि तभी श्वेत-सुंदरी के मोबाइल पर कोई कॉल आ गई। उधर जो भी था उससे उसने बहुत ही उपेक्षा-पूर्ण ढंग से संक्षिप्त बातचीत की और फिर मोबाइल में जुट गई। मैंने देखा कि बात करते समय उसके चेहरे पर खिन्नता के जो भाव उभर आये थे वो बाद में भी बने रहे। कुछ ही देर में उसने मोबाइल ऑफ़ करके रख दिया। मैंने सोचा अब ख़ाली हुई हैं। जल्दी ही शुरुआत करूँ बात करने की। इनका क्या ठिकाना, कहीं फिर न व्यस्त हो जाएँ।

लेकिन क्या, कैसे शुरू करूँ यह कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था। मैंने सोचा वही पुराना फ़िल्मी राग अलापता हूँ कि मुझे लगता है कि मैंने पहले कहीं आपको देखा है। कहाँ की रहने वाली हैं आप? मगर यह सोचकर ठहर गया कि कहीं यह श्वेत-सुंदरी नाराज़ ना हो जाएँ। मुझे लफंगा-बदमाश समझकर कोई बखेड़ा न खड़ा कर दें। नथुनी वाली और 'कहाँ?' का उत्तर जानने के चक्कर में लेने के देने न पड़ जाएँ।

बड़ी विचित्र हो रही थी मेरी हालत। वह कुछ ग़लत न समझ लें यह सोच कर जैसे ही ठहरता, वैसे ही मन प्रचंड रूप से व्याकुल हो उठता कि नहीं इनसे जानना ही है कि हम कहाँ मिले या मिलते थे। इस कोशिश में एक बार फिर मुझे लगा कि मैंने सूत्र का सिरा पकड़ लिया है।

मैं बोलने ही जा रहा था कि अचानक ही उसने अपनी मध्यम हील की गुलाबी सी चप्पल पहनी और बाएँ मुड़ कर गैलरी में आगे बढ़ गई। मैं ग़ौर से उन्हें जाते हुए देखता रह गया। मुझे याद आया कि सहपाठिनी को भी ऐसे ही देखता रह जाता था। मैं एक बार पुनः प्रयास करने के लिए फिर प्रस्थान बिंदु पर खड़ा था।

उनके जाते ही मेरे मन में आया कि मैं भी उसी ओर जाऊँ जिधर वह गई हैं। फिर सोचा उससे पहले मैं लड़के से बात करना शुरू करूँ। लेकिन उसने माँ के जाते ही उनका मोबाइल उठाकर गेम खेलना शुरू कर दिया। ट्रेन अपनी रफ़्तार में चली जा रही थी, मैं भी अपने आप को रोक नहीं पाया। चला गया उसी ओर।

वह मुझे दरवाज़े पर दोनों हैंडिल पकड़े खड़ी मिलीं। यह देख कर मैंने सोचा इतनी स्पीड में चलती ट्रेन के दरवाज़े पर खड़े होकर बाहर देखना तो बहुत बड़ी मूर्खता है। यह ऐसी मूर्खता क्यों कर रही हैं। फोन पर किसने इनसे क्या कह दिया है कि यह अपनी बेचैनी या ग़ुस्सा दूर करने के लिए ऐसा जानलेवा क़दम उठा रही हैं।

वह कभी बाएँ देखतीं, कभी दाहिने। सी-पिन में कसे उनके बाल तेज़ हवा के कारण ढीले हो चुके थे। वह इतनी लापरवाही के साथ खड़ी थीं कि देख कर कोई भी सहम उठता। मैंने बहुत ट्रेन यात्रायें की हैं लेकिन किसी महिला को कभी ऐसी मूर्खता करते नहीं देखा था।

मैंने सोचा इनसे कहूँ कि ऐसा न करें, यह बहुत ख़तरनाक है। जानलेवा है। फिर यह सोच कर रुक गया कि अचानक आवाज़ सुनकर इनका संतुलन बिगड़ सकता है। मैं कुछ देर देखता रहा फिर हल्के से खाँसते हुए टॉयलेट में चला गया कि कहीं श्वेत-सुंदरी यह न समझ लें कि मैं पीछे खड़ा उन्हें देख रहा था। टॉयलेट जाने की ज़रूरत नहीं थी लेकिन मैं दरवाज़े को तेज़ी से बंद करके उसकी आवाज़ से उनका ध्यान अंदर खींचना चाहता था।

मगर दो मिनट बाद जब मैं निकला तब भी वह मुझे वहीं पर, उसी तरह खड़ी मिलीं। मन ही मन सोचा यार इन्होंने तो मूर्खता की हद कर दी है। चलो कह ही देता हूँ कि अंदर आ जाइए। मगर उनकी स्थिति और गाड़ी की स्पीड देखकर किसी अनहोनी होने की आशंका के कारण चुप रहा। फिर सोचा अचानक ही इनका हाथ पकड़ कर झटके से अंदर खींच लूँ। फिर ठहर गया कि ऐसे में यह कोई हमला समझ कर प्रतिक्रिया में पीछे पलट कर नीचे गिर सकती हैं।

मैं ऐसी तमाम नकारात्मक बातों से परेशान होकर अपनी सीट की ओर चल दिया। बच्चा गेम खेलने में लगा हुआ था। कुछ सोच कर मैं दूसरे वाले बच्चे की सामने वाली सीट पर जाकर बैठ गया। मेरा मुँह श्वेत-सुंदरी के दरवाज़े की तरफ़ था। मैं यह सोचकर ही ऐसे बैठा था कि जब वह आएँगी तो उनसे यह ज़रूर कहूँगा कि आप बहुत हाई रिस्क के साथ खड़ी हुई थीं। ऐसा करना जानलेवा है।

मुझे अपनी योजना के साथ बैठे हुए दो मिनट ही हुआ होगा कि वह बड़े आराम से आकर अपनी जगह पर बैठ गईं। मैं ठीक से उधर देख भी नहीं सका। उन्होंने बैठते ही बालों से सी-पिन निकाला, कंघी करके फिर लगा लिया। पैर फिर ऊपर करके बैठ गईं। उनका चेहरा बड़े बेटे की खिड़की की तरफ़ था, और पीठ मेरी तरफ़। मैं उन पर एक नज़र डालकर खिड़की से बाहर देखने लगा।

मुझे एक आश्चर्य भी हुआ कि इन माँ-बेटों के बीच बातचीत नहीं होती क्या, जैसे अन्य मासूम बच्चों और माँ के बीच होती रहती है। छोटे वाले ने भी माँ के बैग से एक मोबाइल निकालकर खेलना शुरू कर दिया था। मैं ऊब कर अपनी सीट पर जाने की सोच कर फिर बैठ गया कि इससे ये यह सोच सकती हैं कि मैं इनके पीछे पड़ा हुआ हूँ, इसलिए यहाँ थोड़ा समय बिता दूँ। थोड़ी देर में ट्रेन अगले स्टेशन पर खड़ी हो गई।

मैंने सोचा देखूँ अब ये क्या करती हैं। प्लेटफ़ॉर्म उन्हीं की तरफ़ था। मेरे दिमाग़ में आया कि अपनी जगह पहुँचने का यह सही समय है। मन में यह सोच कर उठा कि चाय वाले को बुलाता हूँ और माँ-बेटों को ऑफ़र करता हूँ, मगर मेरे खड़े होने के साथ ही वह भी खड़ी हो गईं, मैं अपनी सीट की तरफ़ और वह बाहर की तरफ़ निकल गईं। निकलते समय उनका कंधा मेरी बाँहों को छू गया था।

उनके चले जाने से मुझे बड़ी निराशा हुई। अपनी जगह बैठ तो गया लेकिन चाय नहीं ली। एक चाय वाला चाय-चाय करता हुआ खिड़की की बग़ल से निकल गया। वह वापस तब आईं जब ट्रेन चलने लगी थी। जब आईं तब उन्हें देखकर मुझे लगा कि जैसे उनके चेहरे पर एक व्यंग्यात्मक मुस्कान खिली हुई है। चिढ़ा रही हैं, मुझे ही टारगेट कर रही हैं। मैंने सोचा कि कहीं ये यह तो नहीं समझ रही हैं कि मैं इनसे बात करने के लिए बहुत लालायित हूँ।

दिमाग़ में यह बात आते ही मैं खिड़की से बाहर देखने लगा। मैंने सोचा ये श्वेत-सुंदरी इतनी घमंड में क्यों है? इन्हें अगर अपनी सुंदरता का घमंड है, तो अब मैं इनकी तरफ़ देखूँगा भी नहीं। धनश्री इन कंजई श्वेत-सुंदरी महोदया से कहीं ज़्यादा सुंदर है। लेकिन वो घमंडी नहीं है। हाँ अपनी सुंदरता बार-बार शीशे में देखती रहती है बस।

सारे दोस्त जानबूझकर मेरे सामने उसकी सुंदरता की रिकॉर्ड-तोड़ तारीफ़ करते हैं। एक ने तो तारीफ़ का सहारा लेकर जब अपनी गंदी विकृत भावना प्रकट की, कि काश मिसेज एक्सचेंज करने की परंपरा होती तो मैं भाभी जी को देखते ही बदल लेता।

उसकी इस गंदी भावना पर मैं कोई प्रतिक्रिया देता कि, उससे पहले ही वह प्रचंड देवी सी फूट पड़ी थी। उसे तमाम अपशब्द कहते हुए थप्पड़ मारने के लिए तेज़ी से आगे बढ़ गई थी। यदि मैंने बीच में ही उसे पकड़ न लिया होता तो उसने उसे थप्पड़ मार ही दिया था।

आख़िर उसने एक तरह से उसे धक्के देते हुए घर से बाहर निकाला था। नाश्ता तक पूरा ख़त्म नहीं होने दिया था। उसके जाने के बाद मुझ पर एकदम से फट पड़ी और कहा कि, ‘फिर कभी अपने किसी भी कमीने दोस्त को घर की तरफ़ भी लेकर मत आना। अंदर आने की तो बात ही नहीं है। मैं ऐसे गंदे इंसानों को देखते ही उनका सिर फोड़ दूँगी। मैं तुमको साफ़-साफ़ बता रही हूँ कि तुम्हारे ये की-स्वैपिंग गेम के प्लेयर फ़्रैंड अगर दोबारा मुझे दिख गए तो मैं इनकी आँखों में चाकू घुसेड़ दूँगी।’

उससे ऑफ़िस वालों की बातें करते समय मैं ही बताता था कि कैसे कुछ लोगों ने एक सीक्रेट क्लब बनाया हुआ है। जिसके सदस्य वाईफ़ स्वैपिंग का खेल खेलते हैं। इनमें से दो-तीन मुझे भी कई बार गेम में शामिल होने के लिए कह चुके हैं।

पहली बार सुनते ही उसने कहा था कि ऐसे लोगों को कभी घर मत लाना। लेकिन मैंने सोचा कि कभी-कभार अगर घर आकर यह लोग, चाय-पानी कर लेते हैं तो उससे कोई अंतर नहीं पड़ेगा। इन सब के जाते ही मिसेज़ बार-बार कहती थी कि, ‘तुम मेरी बात मानते क्यों नहीं। यह सब जितनी देर रहते हैं, उतनी देर घूर-घूर कर मुझे देखते रहते हैं।' वह मेरी बात पर विश्वास नहीं कर पाती थी कि, मैं ऐसे लोगों को बुलाता नहीं, यह लोग ख़ुद ही जब देखो तब, बिना बताए चले आते हैं, ऐसे में घर से भगा तो नहीं सकता न।'

— क्रमशः

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कहानी
बात-चीत
सम्पादकीय प्रतिक्रिया
पुस्तक समीक्षा
पुस्तक चर्चा
विडियो
ऑडियो

विशेषांक में

लेखक की पुस्तकें