ज़िंदगी

ममता मालवीय 'अनामिका' (अंक: 171, दिसंबर द्वितीय, 2020 में प्रकाशित)

अजीब सी कश्मकश में 
अक्सर ज़िंदगी आ जाती है।
कभी किसी की मौजूदगी,
बहार ख़ुशियों की लाती।
तो कभी किसी की ख़ामोशी
अंदर ही अंदर खा जाती है।
एक वक़्त पर थाम कर रखा
हमने हाथ अपनों का।
तो कभी ऐसा वक़्त भी आता,
जब ज़िंदगी लड़खड़ाती है।
लेकिन अपने क़दमों पर 
वो चलना भूल जाती है।
कभी साँस बनकर रहें,
वो यूँ ज़िंदगी के क़रीब।
तो कभी उन्हीं के बिना
जीवन नैय्या
पार होने लग जाती है।
यही जीवन चक्र है मेरे दोस्त,
दुःख की शिला 
कितनी भी भारी क्यूँ न हो?
हृदय की नाज़ुकता उसका 
भार उठाना सीख जाती है।
खोलकर रखना तुम, 
द्वार अपने मन के।
ना उम्मीद लोगों को ज़िंदगी
अक़्सर मुस्कुराने के 
दोहरे मौक़े दे जाती है।

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