मंज़िल एक भ्रम है
ममता मालवीय 'अनामिका'
गुज़रता हर साल,
एक नया सबक़ लाता है।
हर धुँधलाते रिश्ते को,
पर्दानशीं बनाता है।
न जाने किस मंज़िल के पीछे,
भागते रहे हम इतने साल।
बड़े हुए तो जाना,
अपनापन सिर्फ़ भ्रम कहलाता है।
नासमझी की उम्र में,
हम क्या ख़ूब जिया करते थे।
तीज, त्योहार, बिना किसी बात पर,
मस्ती में झूम लिया करते थे।
बड़े हुए तो समझदारी ने,
कुछ ऐसा काला जादू किया।
ख़ून के रिश्तों ने बिना बोले,
बरसों गुज़ार दिया।
कुछ प्रेम के रिश्ते भी बने,
जो जात-पाँत के नाम पर बँट गए।
कुछ सपने आसमां छूने के थे,
जो ज़िम्मेदारी के नीचे दब गए।
अच्छी यादें बनाने का समय
हर किसी ने लड़कर गुज़ारा है।
सहेज कर रखना था जिन्हें,
उन्हें बेक़द्री करके बिसारा है।
प्रेम, अपनापन देने की उम्र में,
लोग अक्सर दूरी बना लेते हैं।
जीते-जी जो कभी साथ नहीं थे,
बिछड़ने पर न जाने, क्यों इतना रोते हैं।
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