विधवा स्त्रियाँ!
डॉ. सुरंगमा यादव
हे ईश्वर!
विधवा स्त्रियाँ
तय कर रहीं तुम्हारी
जवाबदेहियाँ
पूजा तुम्हारी
कितने व्रत-उपवास
आए तुम्हें न रास
जिसके लिए माँगती रहीं दुआ
तुमने उसी से कर दिया जुदा
क्या तुम भी ग्रस्त हो?
समाज की रूढ़ियों से
पुरुष प्रधान
तुमने भी लिया मान
यह कैसा तरीक़ा?
मृत्यु में भी उसे ही
दी तुमने वरीयता
विधुर होने की पीड़ा से
पुरुष बच जाता है तुम्हारी क्रीड़ा से
कोमल हृदया स्त्री पर
डाल देते हो पीड़ा गुरुतर
अनंत पथ पर पुरुष अग्रगामी
स्त्री पर आयी जैसे सुनामी
वैधव्य का दंश झेलती
मृतप्राय हो जाती हैं
विधवा स्त्रियाँ
एक स्त्री सिर्फ़ पति ही नहीं खोती
उसके साथ खो देती है
सारी ख़ुशियाँ तीज-त्योहार
साज-सिंगार!
उसके हृदय की चीत्कार
तुम्हें कोसती है बार-बार
क्यों नहीं हर लिए तुमने उसके प्राण!
क्यों किया पति को निष्प्राण
विधवाओं की लंबी क़तारें
लगाती हैं तुमसे न्याय की गुहारें
क्योंकि तुम्हें ही पूजा था
और तुम्हीं ने उपेक्षिता बनाकर
टाँग दिया हाशिए पर
वैधव्य को महसूस कराने की
कैसे ये रीति-रिवाज़
उतारा जाता है जब उसका साज-सिंगार
उमड़ता है दुःख का पारावार
जिन बच्चों को पाला-पोसा
जिन रिश्तों को सँजोया-सँवारा
उनकी ही नज़रों में आ गया फ़र्क़-सा
जाये कहाँ? किसको सुनाए?
खुल के बेचारी रो भी न पाये
सवाल बड़ा है?
हमेशा ही स्त्रियाँ
क्यों पाती हैं उधार की ख़ुशियाँ
कभी सुहाग चिह्न लादें
कभी वे उतारें
बन जाती है एक स्त्री
चलता-फिरता प्रमाणपत्र
पति के जीवन अथवा मृत्यु का
पाँवों में अपने बेड़ियाँ कसके बाँधें
क्यों सहे वे ये सब?
क्यूँ जिएँ सूना जीवन
मृत्यु से पहले मृत्यु का वरण
साँसों का ‘रिदम’ टूटना तय है
कोई आगे तो कोई पीछे गया है
प्यार लेकिन कभी भी मरता नहीं है
कल मूर्त था आज अमूर्त हुआ है
उसी प्यार का मान मन में रहे बस
साज-सिंगार छोड़े उदासी लपेटे
क्यों रहे स्त्री मन को मसोसे
सौभाग्य उसका पुरुष मात्र ही है?
अन्यथा शून्य ही उसकी नियति है?
उठो स्त्रियों रूढ़ियाँ सारी तोड़ो
जीवन में ख़ुशियों से नाता न तोड़ो
तुम्हारी भी अपनी एक अस्मिता
ढूँढ़ लो फिर से उसका पता
सारे रंग-सिंगार-त्योहार अपने लिए अब सजाओ
ज़माने से ऐसे नज़र न चुराओ।
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