सोई हुई संवेदनाओं को जाग्रत करता—पीपल वाला घर
डॉ. सुरंगमा यादवसमीक्षित पुस्तक: पीपल वाला घर (काव्य संग्रह)
रचयिता: रमेश कुमार सोनी
प्रकाशक: जिज्ञासा प्रकाशन गाजियाबाद
प्रथम संस्करण -2023
मूल्य: ₹200.00
पृ.: 130
छत्तीसगढ़ पर्यावरण संरक्षण मंडल और कई अन्य पर्यावरणीय संस्थानों के साथ मिलकर विभिन्न गतिविधियों को सम्पन्न करने वाले रमेश कुमार सोनी की 51 कविताओं का संग्रह ‘पीपल वाला घर’ प्रकृति और पर्यावरण के प्रति उनकी संवेदनशीलता की जीवंत अभिव्यक्ति है, क्योंकि वह केवल काग़ज़ पर लिखे हुए चंद अक्षर नहीं बल्कि ज़मीनी स्तर पर उतरकर प्रकृति के समीप्य से उपजी संवेदनाएँ हैं। इस संग्रह से पूर्व उनकी जापानी विधाओं में पाँच पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। ये उनका प्रथम कविता संग्रह है। रमेश कुमार सोनी ने प्रकृति के विभिन्न अवयवों जैसे हवा, पानी, नदी, पंछी, पेड़, पहाड़, साँझ, जंगल, पीपल आदि के साथ गहरा जुड़ाव अनुभव करते हुए इनके गुण, महत्त्व, संतुलित उपयोग तथा संरक्षण पर लेखनी चला कर भविष्य के लिए मानव को चुनौती का आईना भी दिखाया है।
ख़ुशियाँ रोप लें, कारवाँ, लाड़ले परिंदे, नदी की यात्रा, काँपती नदी, बोतलबंद पानी, इच्छा मृत्यु, पानी की दुनिया, एक दृश्य, परिवर्तन, अकेला आदमी, मिट्टी और आदमी, सृजनप्रिया, पेड़ लगाते हुए, भयानक स्वप्न, कमर में बंदूक खोंचे, एक पेड़ का शहीद होना, पीपल वाला घर और अलार्म बज रहा है आदि सभी कविताएँ मन को झकझोरती हैं और ये सोचने पर विवश करती हैं कि हम कैसे बुद्धिजीवी हैं जो न केवल अपने लिए बल्कि अपनी भावी पीढ़ी के लिए भी पर्यावरण असंतुलन के रूप में विनाश की विरासत सँजो कर रख रहे हैं। ‘पीपल वाला घर’ संग्रह की कविताओं में कवि का चिंताकुल चित्त तो है ही, आशा के बीज भी अँखुआ रहे हैं।
आज न केवल मानव, मानव से दूर हो रहा है बल्कि वह प्रकृति से भी दूर होता जा रहा है। प्रकृति को रिमोट के इशारे पर चलाने की लालसा रखने वाला मनुष्य विकास की भूलभुलैया में प्रकृति का रास्ता ही भूल चुका है। अधिक से अधिक उपभोग की कामना में उपभोक्ता बन कर बस बिल भुगतान करने में लगा है। प्रकृति ने जो वस्तुएँ सब के लिए सहज उपलब्ध बनाई थीं, आज उन पर या तो बाज़ार हावी है, या वे माफ़ियाओं के चंगुल में हैं। जीवन शैली पर बनावट का रंग इतना चढ़ चुका है कि हम शेष रंगों को भूलकर कृत्रिमता में ही आनंद का अनुभव कर रहे हैं। संग्रह की पहली कविता में ही कवि की चिंता प्रकट हुई है:
हवा पानी बिक रहा है
नदियों के ठेके हुए हैं प्याऊ पर बैनर लगे हैं;
पानी पूछने का रिवाज़ गुम हुआ है
साँसों की कालाबाज़ारी में-
ऑक्सीजन का मोल महँगा हुआ है।
प्लास्टिक के फूल बेचकर ख़ुश हैं बहुत से बचे-खुचे लोग
मोबाइल में पक्षियों की रिंगटोन्स से।
मोबाइल में पंछियों के कलरव की रिंगटोन लगाकर हम आनंद का अनुभव कर रहे हैं, परन्तु पानी और छाँव को तरसते पंछी तथा उनकी विलुप्त होती प्रजातियों की चिंता से बेख़बर हैं, इसीलिए ये सूची लंबी होती जा रही है:
विलुप्तता के इस महाचक्र में
डोडो के साथ रेड डाटा बुक में
लंबी हो रही हैं ये सूचियाँ
अंधी दौड़ और अतिभौतिकता मनुष्य को तमाम शारीरिक और मानसिक रोग उपहार में बाँट रही है, फिर भी मनुष्य चेत नहीं रहा, संवेदना की नदी भौतिकता के त्रास से सूखती जा रही है:
नई सभ्यता लील चुकी है-
लोगों के भीतर की नदी और पानी को
उनके शरीर भरे हुए हैं-
नमक और शक्कर के रोगों से
ऐसे लोग पानी बचाते नहीं
सिर्फ़ ख़रीदते हैं जैसे
ख़रीद रहे हों-ख़ून की बोतलें।
अस्तित्व के संकट से जूझते नदी, तालाब, पंछी, पेड़-पौधे, धरती जल, पहाड़ सब के सब मनुष्य की ज़्यादती की कहानी स्वयं कह रहे हैं। विषाक्त होती हवा, नंगे होते पहाड़, प्रदूषित होतीं नदियाँ और खोखली होती धरती का दर्द बयाँ करती ‘कारवां’ कविता दर्शनीय है:
ज़हरीली हवाओं की दमघोंटू साँस और
अम्लीय वर्षा की चिंता लिए
सीना छलनी हुए
बोरवेल से छिद्रित आँचल का दर्द लिए
पानी की घूँट को तरसती
सीने में ज्वाला धधकाती
ओज़ोन की फटी छतरी ओढ़े
विषैले कचरों का बोझा ढोए
जल के अनियोजित प्रयोग और प्रदूषण आदि के कारण कितनी ही नदियाँ अस्तित्त्व के लिए जूझ रही हैं, नदियों को बचाने के लिए हमें अपने भीतर की संवेदना की नदी को पहले बचाना होगा, कवि का यही कहना है:
नदियाँ अगर विलुप्त होती गयीं तो
हम सब मिलकर भी
नहीं बना पाएँगे-एक नदी
नदी बनने की यात्रा
इंसानी सभ्यताओं से भी पुरानी है
हम सबको बचाना होगा-
अपने भीतर की नदी को
तभी बच पाएगी-कोई नदी
हमारी विलुप्तता से पहले।
इंसान की महात्वाकांक्षाएँ इतनी बढ़ती जा रही हैं कि उसे अब यह धरती छोटी महसूस होने लगी है और उसने चाँद और मंगल पर भी वर्चस्व स्थापित करने की होड़ ठान ली है। नगरीकरण के चक्कर में गाँव गुम हो रहे हैं। आधुनिक सभ्यता ने भूख और भ्रष्टाचार जैसे अपराधों को जन्म देकर विनम्रता, सौहार्द और कृतज्ञता को लील लिया है। हावी होते बाज़ारवाद के बीच कवि का आग्रह है कि आइए लौट चलें प्रकृति की ओर:
ऐमज़न और फ़्लिपकार्ट मुस्कुरा रहे हैं
यही एक दिन बेचेंगे भाड़े में हमें-
छाया, आसरा, घोंसला, सुकून और-
जैसे बिक रही है हवा और पानी बोतलों में
कितना पैसा है आपके पास इसे ख़रीदने को?
आइए लौट चलें प्रकृति की ओर
कोई प्रतीक्षा में है आपके ही गाँव में।
प्रकृति के लाड़ले परिंदे सूखे पेड़ और कटे हुए ठूँठ पर बैठकर, इन कटे हुए पेड़ों को हरा करने की अपील कर रहे हैं। जंगलों के कटने से पशु-पक्षियों के आवास ख़त्म हो रहे हैं। नौबत ये आ चुकी है कि कृत्रिम जंगलों के निर्माण के लिए एआई की मदद से पक्षियों से यह जानने की कोशिश की जा रही है, कि उन्हें किस तरह के पेड़ पसंद हैं, कितना हास्यास्पद है, पक्षी भी जानते हैं:
पाखी जानती है कि ये
पतझर का सूखापन नहीं है बल्कि
इंसानी ज़रूरतों का सूखापन है।
‘सृजनप्रिया’ कविता में कवि ने स्त्री और वसुधा को समतुल्य बताते हुए लिखा है कि बेहिसाब पीड़ा झेलते-झेलते अब इनके धैर्य की सीमा हो चुकी है। अपमान की ज्वाला नाना रूपों में धधक कर इनके आत्मसम्मान को राख कर रही है:
स्त्रियों की पीड़ा का कोई हिसाब नहीं है-
अग्निस्नान, बलात्कार, क्रय-विक्रय करना और
घरेलू हिंसा का आतंक
ये सब अब तक अनुत्तरित हैं
स्त्री और वसुधा दोनों सह रही हैं-
इस नई दुनिया का दर्द,
वैश्विक ग्राम वाली कंक्रीट की सोच से
सर्वस्व लुटा चुकी पृथ्वी और स्त्रियों ने
अब माता बनने से
इनकार के मोड़ में आने लगी हैं।
इन सबके होते हुए भी कवि के मन में आशा है कि एक दिन मनुष्य ज़रूर चेतेगा, रोपेगा पौधे, धरा हरी-भरी होगी, मेघ लौटेंगे और अपनी श्वेत बूँदों से धरा के आँचल पर हरीतिमा के श्लोक लिखेंगे, तब परिंदे भी लौटेंगे। एक पौधे का रोपण वास्तव में पानी, हवा, छाया, फल, सुकून और पृथ्वी की साँसों को सुरक्षित करना है।
पेड़ रोपते हुए मैंने बोया है,
भविष्य के गर्भ में-
पानी, हवा, छाया, फल, सुकून और
थोड़ी-सी पृथ्वी की साँसें।
संग्रह की कविताओं में अलंकारों की छटा भी देखने को मिलती है प्रचंड लू को नागिन के रूप में चित्रित करते हुए कवि ने लिखा है:
प्रचंड लू की नागिन गिन रही है-
ढोर-डंगरों, पक्षियों और इंसानों की
लाशों का आँकड़ा।
स्थान-स्थान पर अंग्रेज़ी के शब्दों का भी सुंदर प्रयोग किया है, जैसे ट्रिमिंग, पासवर्ड, हैक, रिमोट, हाइटैक तथा मोड़ आदि शब्द बहुत ही सहजता के साथ प्रयुक्त हुए हैं।
‘पीपल वाला घर’ कविता संग्रह की कविताएँ भाव, भाषा और शिल्प की दृष्टि बेहतरीन हैं तथा पाठकों के मन में पर्यावरण संरक्षण के लिए उठ खड़े होने की संकल्प शक्ति जगाने वाली भी हैं। हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएँ।
समीक्षक: डॉ. सुरंगमा यादव
0 टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
- पुस्तक समीक्षा
-
- दूधिया विचारों से उजला हुआ– 'काँच-सा मन'
- भाव, विचार और संवेदना से सिक्त – ‘गीले आखर’
- भावों का इन्द्रजाल: घुँघरी
- विविध भावों के हाइकु : यादों के पंछी - डॉ. नितिन सेठी
- संवेदनाओं का सागर वंशीधर शुक्ल का काव्य - डॉ. राम बहादुर मिश्र
- साहित्य वाटिका में बिखरी – 'सेदोका की सुगंध’
- सोई हुई संवेदनाओं को जाग्रत करता—पीपल वाला घर
- सामाजिक आलेख
- दोहे
- कविता
- कविता-मुक्तक
- लघुकथा
- सांस्कृतिक आलेख
- शोध निबन्ध
- कविता-माहिया
- कविता - हाइकु
- कविता-ताँका
- साहित्यिक आलेख
- विडियो
- ऑडियो
-