बात उन दिनों की है जब मैं कक्षा चार या पाँच में पढ़ती थी। जब कभी मैं अपने आस-पास किसी के पिता या माँ के मरने की बात सुनती या देखती तो मन बहुत बेचैन हो जाता। ये बेचैनी एक या दो दिन नहीं बल्कि हफ़्तों तक रहती। मैं नहीं जानती ऐसा सभी बच्चों के साथ होता होगा या नहीं। मन रह-रह कर यही सोचता कि वो बच्चा कैसे रहेगा? किसे मम्मी-पापा कहेगा? कहीं मेरे साथ ऐसा हो गया तो मैं क्या करूँगी? और भी न जाने कितने सवाल मन में उठते। जब रात में सब सो जाते तो ये सवाल और परेशान करते। रात-रात भर नींद नहीं आती। मैं रात भर भगवान से प्रार्थना करती, "हे भगवान मेरे साथ कभी ऐसा न हो"। बाल मन ये मानने को तैयार न था कि ये प्रकृति का नियम है, जो आया है उसे जाना है। मुझे शाम से ही डर लगने लगता, रात कैसे कटेगी? बिस्तर पर लेटे-लेटे रात भर मैं दिन में किये गये कार्यों के बारे में सोच-सोच कर अपने मन को उस बात से हटाने का प्रयास करती लेकिन मन घूम-फिर कर उसी बात पर आ जाता।

आज मैं ख़ुद माँ बन चुकी हूँ। मेरी माँ मृत्यु शैया पर हैं। उन्हें गम्भीर बीमारी है। वो माँ जो अपने समय में बहुत ही सुन्दर और कोमल थी। सुन्दरता और कोमलता एक-दूसरे के पूरक थे। ज़रा-सा सिर दर्द हो़, बुखार हो घबरा जाती थी। मरने से बहुत डरती थी। इसीलिए ज़रा-सी परेशानी में डॉक्टर के पास भागती थीं। आज जब उन्हें असहनीय पीड़ा होती है तो उनकी कराह अन्दर तक हिला देती है। महीनों बिस्तर पर पड़े-पड़े भयानक दर्द झेलते-झेलते अब उनका मन जीवन से घबरा उठा। हमेशा मरने से डरने वाली माँ कराहते हुए टूटे-फूटे शब्दों में भगवान से कहतीं, "हे भगवान तुम्हें मेरे प्राण लेने हैं तो ऐसे ही ले लो, इतनी तकलीफ़ क्यों देते हो”। जब इन्सान ख़ुद अपनी मौत की दुआ माँगने लगे तो दर्द की पराकाष्ठा होती है। मैं भी सोचती, "भगवान, आख़िर तुम्हें प्राण ही तो चाहिए, उस के लिए इतना उपक्रम क्यों कर रहे हो?”

इन्सान नियति के आगे कितना विवश हो जाता है। कभी जिनके न रहने की कल्पना से ही हम काँप उठते हैं, जिनके लिए रात-रात दुआएँ माँगते हैं और कभी उन्हीं की मुक्ति की कामना करने लगते हैं।

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