हिन्दी हाइकु में ‘वृद्ध विमर्श’

01-01-2025

हिन्दी हाइकु में ‘वृद्ध विमर्श’

डॉ. सुरंगमा यादव (अंक: 268, जनवरी प्रथम, 2025 में प्रकाशित)

साहित्य समाज का प्रेरक भी होता है और समाज से प्रेरित भी होता है। सकारात्मक और नकारात्मक दोनों ही प्रकार के सामाजिक बदलाव साहित्य को प्रभावित करते हैं तथा साहित्य पर अपनी छाप छोड़ते हैं। आधुनिक साहित्य केवल वैयक्तिक अनुभूतियों की अभिव्यक्ति मात्र नहीं है, वह अपने समय और समाज के प्रति जागरूक रहकर जागृति का सन्देश दे रहा है। साहित्य में उठते विमर्श साहित्य की जीवंतता के प्रतीक हैं। हिंदी साहित्य में स्त्री व दलित विमर्श के पश्चात् अब वृद्ध, दिव्यांग तथा किन्नर आदि को विमर्श का विषय बनाया जा रहा है। विमर्श का अभिप्राय किसी विषय, विशेष रूप से हाशिए पर धकेले गए वर्ग की वास्तविक स्थिति तथा समस्याओं का चित्रण करते हुए उनकी महत्ता का प्रतिपादन कर उनके लिए सम्मान का द्वार खोलना है। 

बदलते हुए सामाजिक व मानसिक परिवेश से परिवार के वृद्ध जन भी बहुत अधिक प्रभावित हुए हैं। कितने ही ऐसे कारण आ खड़े हो गए हैं, जिन्होंने वृद्धों को उस सम्मानजनक स्थान से अपदस्थ कर दिया, जो उन्हें प्राप्त था तथा जिनके वे अधिकारी भी हैं। नगरीय प्रभाव, भौतिकता, आत्म केंद्रीकरण, आवास की समस्या, अति व्यस्त जीवन-शैली, महँगाई, सामंजस्य का अभाव, एकल परिवार की अवधारणा, रोज़गार के लिए बढ़ता पलायन आदि के साथ-साथ बुज़ुर्गों की उपेक्षा का सबसे बड़ा कारण है युवा पीढ़ी का स्वच्छंदताप्रिय होना। आधुनिकता के मोह में डूबा युवा पारंपरिक जीवन मूल्यों, आस्था तथा रीति-रिवाज़ों आदि के प्रति उदासीन बन रहा है। मन में बसने वाले सुकोमल स्थायी भाव ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे विलुप्त से होते जा रहे हैं। रिश्ते-नाते लाभ-हानि की तुला पर तुल रहे हैं। वृद्धों को निष्प्रयोज्य सामग्री समझकर घर के किसी कोने तक सीमित कर दिया जा रहा है, अथवा घर का वह कोना भी वृद्धों के रहने से अनावश्यक घिरा प्रतीत होने लगा है। वृद्धाश्रमों की बढ़ती संख्या स्वतः इस बात का प्रमाण है कि अधिकतर वृद्घ उपेक्षा और एकाकीपन का शिकार हो रहे हैं। श्री राम का उच्च आदर्श, श्रवण कुमार की मातृ-पितृ भक्ति, पिता की प्रसन्नता के लिए देवव्रत का भीष्म बन जाना जैसे आदर्शों वाला हमारा समाज कैसे इतना कठोर हो गया कि जिनकी शीतल छाया में अपने जीवन को आलोकित किया उन्हें ही अकेलेपन और उपेक्षा के अंधकार में धकेल दिया। हमारी संस्कृति में तो कहा गया है कि:

अभिवादन-शीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविनः। 
चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुर्विद्या यशो बलम्॥

वृद्धों को परिवार में उचित मान-सम्मान मिलना तो दूर, घर में उनकी उपस्थिति ही भार स्वरूप है, इसीलिए एक सहज रास्ता बच्चों को मिल गया है, वे वृद्ध माता-पिता को वृद्धाश्रम पहुँचाकर तथा बहुत हुआ तो वहाँ के ख़र्चे वहन करके अपने कर्त्तव्य की इतिश्री समझने लगे हैं। वे यह भूल गए हैं कि जीने के लिए हर उम्र की तरह इस उम्र में भी अपनों का साथ, प्रेम और अपनापन तथा छोटी-छोटी ख़ुशियाँ बहुत आवश्यक हैं। केवल रोटी-दवा और औपचारिक देख-रेख भर पर्याप्त नहीं है। परिवार, विशेषकर नाती-पोतों से दूर रहने की पीड़ा का उपचार किसी भी दवा से सम्भव नहीं। हिंदी हाइकु वृद्धों की इस पीड़ा को शिद्दत से महसूस कर रहा है। आज अनेक हाइकुकार वृद्धजन की समस्याओं पर लेखनी चलाकर समाज का ध्यान इस ओर आकृष्ट कर रहे हैं। सुप्रसिद्ध हाइकुकार डॉ. सुधा गुप्ता, रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ , सुदर्शन रत्नाकर, डॉ. भीकम सिंह, डॉ. जेन्नी शबनम, ऋता शेखर, कृष्णा वर्मा, सविता अग्रवाल, डॉ. कुँवर दिनेश सिंह, कमला निखुर्पा, पुष्पा मेहरा, भावना सक्सेना, शशि पाधा, शिवजी श्रीवास्तव, मीनू खरे, डॉ. सुरंगमा यादव, डॉ. कविता भट्ट, रश्मि विभा त्रिपाठी, छवि निगम, अनिता ललित तथा दिनेश चन्द्र पाण्डेय आदि ने ‘वृद्ध विमर्श’ को हाइकु में बड़े सशक्त ढंग से उठाया है। 5, 7, 5 वर्णों के छोटे से हाइकु में किया गया वृद्ध जीवन का चित्रण लंबी-लंबी कविताओं, कहानियों और उपन्यासों में किए गए चित्रण की भाँति ही अत्यंत प्रभावशाली है और हमें इस संदर्भ में विचार करने पर विवश करता है। 

बच्चों का स्वर्णिम भविष्य तथा सोसाइटी में अपना स्टेटस बनाने के लिए माता-पिता उन्हें विदेशों में पढ़ने भेज तो देते हैं, पर बाद में कुछ बच्चे ऐसे भी होते हैं, जो वहीं के होकर रह जाते हैं। समय के साथ बूढ़े होते माता-पिता की ओर से उदासीन होकर वे अपने कॅरियर एवं सेटलमेंट को प्राथमिकता देते हैं। अब या तो माता-पिता बड़े मन से बनाया अपना घर व सम्पत्ति बेचकर बच्चों के पास चले जाएँ या अकेले रहें, वहाँ जाकर भी नए माहौल में एडजस्ट होना तथा नई पीढ़ी के साथ तालमेल हो पाना अनिश्चित-सा है। दूर जा बसे बच्चों में बुज़ुर्गों का मन लगा रहता है। वह घर जहाँ कभी ख़ुशियों का उल्लास था, सूनापन छा जाता है। सुधा गुप्ता लिखती हैं:

उड़े जो पंछी/सूनी आँखों तकती/अकेली शाख़। 

नीड़ बेकार/शावक उड़ गए/पँख पसार। 

साँझ की बेला/नीड़ निहारें पंछी/बैठ अकेला। (सुरंगमा यादव)

नैन सजल/देखें वृद्ध दंपती/उड़ते यान। (ऋता शेखर)

नगरीय प्रभाव के कारण संयुक्त परिवारों का स्थान एकल परिवारों ने ले लिया। है परिवार के युवा सदस्यों को विवाहोपरान्त माता-पिता के साथ रहना स्वीकार्य नहीं है। उम्र के जिस पड़ाव पर सर्वाधिक अपनत्व और देखभाल की आवश्यकता होती है, वहीं आकर व्यक्ति नितांत अकेला और उपेक्षित-सा हो जाता है। युवाओं की उन्मुक्त जीवन शैली और कर्त्तव्यबोध का अभाव बुज़ुर्गों की उपेक्षा का कारण बन रहे है। रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ ने वृद्धों की व्यथा को मार्मिक अभिव्यक्ति दी है:

 साँझ हो गई/ख़ुशनुमा जिंदगी/बाँझ हो गई। 

 भीड़ भरे थे/घर और आँगन/अब निर्जन। 

जमने लगी/उम्र की पहाड़ी पे/रिश्तों की बर्फ़। (कमला निखुर्पा) 

कृष्णा वर्मा ने अपने हाइकु में वृद्ध माता-पिता की पीड़ा का यथार्थ चित्रण किया है। घर में बुज़ुर्गों की स्थिति समुद्र तट पर खड़े प्यासे व्यक्ति की भाँति हो गई है। भूखे-प्यासे रहकर तथा सभी प्रकार के कष्ट उठाकर जिनका पालन-पोषण किया, वे ही आज ख़ून के प्यासे हो गए। स्वार्थ इतना हावी है कि रिश्ते बनिये के उधार की तरह ब्याज सहित वसूली कर रहे हैं। कृष्णा वर्मा लिखती हैं:

 व़क्त का शाप/समुद्र हुए पूत/प्यासे माँ-बाप। 

 कैसा जुनून/ख़ून के रिश्ते लगे/चूसने ख़ून। 

 रिश्ते हो गए/बनिए का उधार/माँगें क़ीमत। 

उम्र के साथ-साथ शारीरिक एवं मानसिक शक्ति का घटना स्वाभाविक है। इन्द्रियाँ शिथिल पड़ने लगती हैं। याददाश्त में कमी, सुनने और समझने की शक्ति का क्षीण होना वृद्धों की प्रमुख समस्या है। विभिन्न प्रकार के रोग भी इस अवस्था में शरीर को घेर लेते हैं। दवाओं की भरमार हो जाती है, याद रखना कठिन हो जाता है। दवा की वैसाखी पर जीवन निर्भर हो जाता है। कभी–कभी स्थिति यह हो जाती है कि पास रखा पानी का गिलास भी उठाना मुश्किल हो जाता है। सहारा देने वाले जब बेसहारा बना कर छोड़ देते हैं, तो जीवन अभिशाप लगने लगता है। सुदर्शन रत्नाकर लिखती हैं:

कैसा है जीना/रूठ गए हैं सब/अपने अंग। 

जीवन साँझ/कौन पकड़े हाथ/काँपते पाँव। 

काँपती देह/अभिशप्त बुढ़ापा/टूटता नेह। (रामेश्वर काम्बो ‘हिमांशु’)  

छोटे अक्षर/बदलता चश्मा/आँखों से जंग। (शशि पाधा) 

उसने खींचा/प्रेम हस्त अपना/जिसको सींचा। (कविता भट्ट) 

खाँसता कंठ/शरीर मजबूर/पानी है दूर। (ऋता शेखर ‘मधु’

सुन्न हैं हाथ/खिलाए कोई मुझे/रोटी का ग्रास। (सविता अग्रवाल) 

कौन बदले/हमारे डायपर/ताकते पड़े। (रमेश कुमार सोनी)

उपर्युक्त एक–एक हाइकु जीवन संध्या के अंधकार का मार्मिक चित्रण कर रहा है। लाचार देह अपनों के मुखौटे उतरे चेहरे देखकर हैरान है। जिस जीवन-दीप का आयु रूपी तेल समाप्त हो चुका है, केवल बाती ही थोड़ी-बहुत गीली शेष है, ऐसी बाती की मद्धिम लौ अपने जलने पर ही अभिशप्त अनुभव करने लगती है। अप्रत्याशित उपेक्षा से आहत मन सुदर्शन रत्नाकर के शब्दों में यही सोचता है:

अभिशाप है/बूढ़ा होकर जीना/नहीं उजास। 

उमेश महादोषी लिखते हैं:

ऐसे वो जिया/नभ से तारा टूटा। ठुकरा दिया। 

ऋता शेखर ‘मधु’ लिखती हैं:

वृद्ध की मौत/प्लेट के सूखे ब्रेड/कहते कथा। 

कामकाजी माता-पिता दिन में कुछ घंटों के लिए ही अपने बच्चों को क्रेच में छोड़ते हैं; लेकिन उनके मन में अपने बच्चों के लिए चिंता तथा कहीं न कहीं आत्मग्लानि बनी रहती है। बच्चे माता-पिता से भी आगे जाकर पूरी तरह से माता-पिता को बड़ों के क्रेच अर्थात् वृद्धाश्रम में छोड़कर निश्चिंत हो जाते हैं। उमेश महादोषी का हाइकु इस संदर्भ में बड़ा सुंदर बन पड़ा है:

एक ही कथा। क्रेच से वृद्धाश्रम/उम्र की व्यथा। 

वृद्धों की दयनीय स्थिति पर अनिमा दास लिखती हैं:

यह शरीर/जर्जर शुष्क वृक्ष/पंचभूत का। 

झुर्रियाँ उगीं/गवाह संघर्ष की/जर्जर देह। (कविता भट्ट)

जहाँ एक से अधिक बेटे हैं वहाँ तो बुज़ुर्गों की देखभाल और भी अधिक कलह का कारण बन जाती है, अपने ही बच्चों की झिड़कियाँ खाना वृद्धों की नियति हो जाती है। कई-कई संतानें को मिलकर भी माता-पिता की देखभाल करना कठिन लगता है। सम्पत्ति बाँटकर भी वृद्धों के हिस्से उपेक्षा ही आती है। ऋता शेखर लिखती हैं:

साझा सामान/तीन पुत्र बनाएँ/एक प्याली चाय। 

उम्र जो हारी/एक पेट है भारी/सब अपने। (जेन्नी शबनम)

भूख लापता/झिड़कियाँ खाकर/प्यास न पास। (सुरंगमा यादव)। 

वृद्धों की पीड़ा/सम्पत्ति बाँटकर भी/पाई उपेक्षा। (रमेश कुमार सोनी) 

आशा पांडेय अपने ही जायों की यह रीति-नीति देख कर कहती हैं:

अपने जाए/रौंद गए दिल को/जैसे पराए। 

उम्र के इस पड़ाव पर प्रत्येक बड़े-बुज़ुर्ग को किसी न किसी प्रकार की सहायता की आवश्यकता अवश्य होती है। वृद्धावस्था में भावनात्मक सहारा भी बहुत आवश्यक है। वृद्धों की चाहत होती है कि घर के युवा सदस्य कुछ देर ही सही, उनके पास बैठें, उनसे बात करें, उनके अनुभवों को सुनें तथा उनसे लाभ उठाएँ। साथ ही अपनी भी समस्याओं को उनसे साझा करें; लेकिन जब परिवार में ऐसा नहीं होता है, तो वृद्धों को लगता है कि जैसे उनका कोई महत्त्व ही नहीं है। वे अपने आपको उपेक्षित महसूस करने लगते हैं। कहीं-कहीं तो उपेक्षा में दुर्व्यवहार भी शामिल हो जाता है। बेटा, बाप को नसीहतें देने लगता है। सुरंगमा यादव लिखती हैं:

वृद्ध लाचार/अपनों की उपेक्षा/देह भी भार। 

बदली रीत/पुत्र दे रहा सीख/पिता को आज। 

हिंदी हाइकु ने वृद्धों की पीड़ा, वृद्ध जीवन की समस्याओं, वृद्धों के मनोभावों एवं वृद्धों के प्रति बदलती मानसिकता को सशक्त अभिव्यक्ति दी है। शरीर के साथ-साथ रिश्तों के शैथिल्य एवं दूरियों को लक्ष्य करके डॉ. कविता भट्ट लिखती हैं: 

ये तन-मन/बिखरते बंधन/त्रास-क्रंदन। 

वृद्ध की आस/चमके कोई तारा/अपना ख़ास। (पुष्प मेहरा) 

दिनेश चंद्र पांडेय ने प्रतीकात्मक रूप में सुंदर हाइकु रचे हैं, जो वृद्धों की स्थिति का बख़ूबी चित्रण करते हैं। पूरे जीवन की तरह ही वृद्धावस्था में भी महिलाओं को अधिक संघर्ष करना पड़ता है, उनके आत्म सम्मान का कोई मूल्य नहीं होता। जीवन साथी के न रहने पर तो बेटे-बेटियों के लिए माँ का मतलब उनके बच्चों की देखभाल करने वाली आया मात्र रह जाता है। अब तक तो हम सास-बहू के क़िस्से सुनते थे, परन्तु आज के युग में माँ–बेटी के सम्बन्ध भी अपनी मधुरता खोने लगे हैं, दिनेश चंद्र पांडेय के प्रतीकात्मक हाइकु दर्शनीय हैं:

व़क्त का फ़र्क/सुबह का अखबार/शाम को व्यर्थ। 

माँ जब चढ़ी/धनी बेटे की सीढ़ी/गिरती गई। 

हँसी-ठिठोली/सास परिचारिका/बहू की किटी। (शिवजी श्रीवास्तव) 

हमारी गौरवशाली संस्कृति, जिस पर हम ही नहीं, बल्कि पूरा विश्व गर्व किया करता था, जिसमें परिवार के बुज़ुर्गों का अत्यंत मान-सम्मान था, आज कुबेरी संस्कृति के मोह में पड़कर हम वे संस्कार भूलते जा रहे हैं। जहाँ प्रातःकाल उठकर सबसे पहले बड़े बुज़ुर्गों के चरण स्पर्श किए जाते थे, उनकी आज्ञा को शिरोधार्य किया जाता था, आज घर के बच्चे आज्ञा माँगना तो दूर, बताने की औपचारिकता भी नहीं करते। 

आजकल गली-गली में खुलते वृद्धाश्राम इस बात का प्रतीक हैं कि हमारे युवा अपनी संस्कृति से विमुख हो रहे हैं। बच्चों के लिए अपना सुख-चैन सब त्याग देने तथा सामर्थ्यानुसार बेहतर से बेहतर पालन-पोषण करने के बाद बच्चे बड़े होकर यही कहते सुने जा रहे हैं कि आपने हमारे लिए किया क्या है? यह तो हर माँ-बाप का फ़र्ज़ होता है। ऐसे कटु वचन सुनकर माता-पिता का हृदय आर्त्तनाद कर उठता है। परिवार के सुख-दुःख को मिलकर बाँटने का चलन ही जैसे समाप्त हो रहा है। हम भौतिक सुखों की लालसा में ईश्वर रूप माता-पिता की अवहेलना कर रहे हैं। वृद्धाश्रम भेजे जाने वाले माता-पिता के हृदय पर क्या बीतती होगी इसे शब्दों में व्यक्त करना अत्यंत कठिन है। भीकम सिंह लिखते हैं:

गीले रुमाल/वृद्धाश्रम में सूखे/है ना कमाल। 

बेकही बात/सब समझ जाते/वृद्ध जज़्बात। 

थोड़ी है आशा/बूढ़ी आँखों में क्यों है/डर बढ़ा-सा। 

सुरंगमा यादव लिखती हैं:

विवश बहे/वात्सल्य नयन से/वृद्धाश्रम में। 

युवा विकृति/बुज़ुर्गों की उपेक्षा/नव संस्कृति। 

शहरीकरण?/बढ़े साधन, साथ/वृद्ध आश्रम। (पूर्वा शर्मा) 

मीनू खरे एक सशक्त हाइकुकार हैं। उन्होंने वृद्धों की अलग-अलग स्थिति का चित्रण अपने हाइकु में किया है। जर्जर दीवार पर बरगद का तनकर खड़े हो जाना, अर्थात् युवा बच्चों द्वारा वृद्धों को नसीहतें देना तथा अन्तिम साँस तक सुध न लेने वाले अपने ही अंशों द्वारा प्राण पखेरू उड़ जाने के बाद दुनिया को दिखाने के लिए तरह-तरह की रस्में निभाने का तमाशा, अक्सर ही देखा जा सकता है। वृद्धाश्रम में जाकर भी बेटे के लिए नौ दुर्गा शक्ति की पूजा एक माँ ही कर सकती है। मीनू खरे लिखती हैं:

बूढ़ी दीवार/जवान बरगद/तनके खड़ा। 

कम बोलिए/बूढ़े कानों ने सुना/एक ही वाक्य। 

बेटे के लिए/नौ दुर्गे पूजती माँ/वृद्धाश्रम में। 

हरदीप कौर संधु के शब्दों में:

अर्थी उठाएँ/दुःख व मातम के/लगा मुखौटे। 

रश्मि विभा त्रिपाठी का मानना है कि आज के बच्चे सचमुच इतने बोल्ड और बड़े हो गए हैं, जो अपने बूढ़े माँ-बाप को बेहिचक वृद्धाश्रम में भेज रहे हैं। फल की आशा में धूप, ताप, बारिश सहकर जिन्हें सींचा, समय आने पर वे ही बाग़बान को भूल गए। सहारा देने वाली लाठियाँ ही जब ठोकर मारने लगें, तो सँभलना कठिन हो जाता है:

बच्चे हैं बोल्ड/वृद्धाश्रम भेज दी/माँ हुई ओल्ड। 

बोझिल राह/बुढ़ापे की लाठियाँ/हैं बेपरवाह। 

पेड़ तो बोया/फल ना चख पाए/बुढ़ापा रोया। 

परिवार में बड़े-बूढ़ों की भूमिका दहलीज़ भर रह गई है, जिससे होकर हर आने-जाने वाला गुज़रता तो है, पर ठहरता नहीं। दूर जा बसे बच्चों को देखने-सुनने का एकमात्र सहारा फोन है। कान दिन भर फोन पर रखे रहते हैं। फोन पर जब वे ‘कैसे हैं आप’ प्रश्न सुनते हैं, तो कंठ अवरुद्ध हो जाता है। आँखों से अविरल धारा बह निकलती है, कैसे कहें कि तुम्हारे बिना कैसे हैं। अनुभवी आँखें रिश्तों की असलियत को अच्छे से भाँप लेती हैं। डॉ. छवि निगम लिखती हैं:

आज भी मौन/काहे न बजता ये/निष्ठुर फोन। 

हूँ दहलीज़/लाँघते जाते सभी/ठहरते न। 

‘कैसे हो बाबा’/सुन उमड़े आँसू/दिन निकला। 

धुँधला चश्मा/दिखाता रिश्ते-नाते/बिल्कुल साफ़। 

अनिता ललित ने युवाओं द्वारा अपने माता-पिता के साथ की जा रही क्रूरता का बड़ा ही मार्मिक शब्दों में चित्रण किया है। जिन लाड़लों को आँखों का नूर समझकर पाला, जिनके सपने पूरे करने के लिए हर कष्ट सहन किया, उन्होंने ही वृद्धावस्था में दुःख का भागी बना दिया:

लाड़ का सूद/आँखों के नूर ने ही/किया बेनूर। 

लेके आकार/आँखों के सपनों ने/दिया नकार। 

कैसा है न्याय/हर दुःख का हर्ता/दंड भरता। 

हम ये भूल जाते हैं कि हमें भी उम्र के इस पड़ाव को झेलना है। शरीर की शक्ति और सामर्थ्य स्थायी नहीं है, एक दिन इसे क्षीण होना ही होगा। आज हम जैसा कर रहे हैं, कल वही हमारे सामने आएगा। जेन्नी शबनम अतीत की ग़लतियों की याद दिलाते हुए कहती हैं:

व़क्त ने कहा/याद करो जवानी/भूलें अपनी। 

सुरंगमा यादव भी लिखती हैं:

क्यों ये उपेक्षा/वृद्धावस्था से वास्ता। अगला रास्ता। 

आज हम सुदूर देश-विदेश में बैठे अपने मित्रों और परिचितों की सोशल मीडिया के माध्यम से पल-पल ख़बर ले रहे हैं। सुबह गुड मॉर्निंग से लेकर रात गुड नाइट तक की रस्म निभा रहे हैं; लेकिन घर के वृद्धों का हाल पूछने का समय नहीं निकाल पा रहे हैं। सुरंगमा यादव ने लिखा है:

है विश्वग्राम/घर के वृद्धों संग/दूरी तमाम। 

व्यस्त जीवन/बुज़ुर्गों के लिए है/समय कम। (सविता अग्रवाल) 

आर्थिक रूप से बच्चों पर निर्भरता वृद्धों की उपेक्षा का कारण तो है ही; परन्तु जहाँ वृद्धजन पेंशन भी पा रहे है, वहाँ भी उपेक्षित हो रहे हैं। हाल यह है कि बेटे पेंशन लेकर भी उनका तिरस्कार करते हैं। ना उनके स्वास्थ्य पर ध्यान देते हैं न खानपान पर। बहुत हुआ तो नर्स के हवाले कर निश्चिंत हो जाते हैं। बस पैसे के लोभ में अपने साथ रखते भर हैं, बूढ़े माँ–बाप पेइंग गेस्ट बनकर रह जाते हैं:

खाते पेंशन/बच्चों को बुज़ुर्गों की/ख़ाक टेंशन। (रश्मि विभा त्रिपाठी)

पेंशन मिली। सहेजने आ गयी। बेटे की जेब। (सुरंगमा यादव)

काँपते हाथ/झोला टाँगते साथ। पेइंग गेस्ट। (ऋता शेखर) 

कहा जाता है कि मूल से सूद प्यारा होता है। पोते-पोती, नाती-नातिन के साथ दादा-दादी, नाना-नानी का कुछ ऐसा ही भावनात्मक जुड़ाव होता है। अपने घर की हरी-भरी खिलती फुलवारी देख कर वृद्धों को असीम प्रसन्नता होती है। घर के छोटे बच्चों के साथ खेलना, उन्हें कहानियाँ सुनाना, उनके साथ शाम को पार्क में जाना उन्हें बहुत अच्छा लगता है। बच्चे भी अपने ग्रैंड फ़ादर-मदर के साथ समय बिताने में बहुत प्रसन्नता का अनुभव करते हैं। कुछ हाइकु द्रष्टव्य हैं:

मुझे सिखाती/सारी न्यू टेक्नोलॉजी/नन्ही उँगली। (पूर्वा शर्मा)

घर में पोता/चॉकलेट की शॉप/भूलें न बाबा। (सुरंगमा यादव)

बच्चे समझें/बुज़ुर्गों के संकेत/स्नेह की भाषा। (रमेश कुमार सोनी)

पुत्र निर्मोही/दादा-पोते का रिश्ता/कल्पतरु-सा। (ऋता शेखर) 

जला ही देते/बुझे मन का बल्ब/पोते–पोतियाँ। (मीनू खरे) 

लेकिन सभी वृद्धों को यह सौभाग्य नहीं मिलता। कुछ वृद्धाश्रम में रहने के कारण घर के बच्चों से दूर हो जाते हैं तथा कुछ को घर में रहते हुए भी बच्चों से घुलने-मिलने नहीं दिया जाता। वजह चाहे जो भी हो बड़े-बूढ़े इससे बड़े आहत होते हैं। सविता अग्रवाल लिखती हैं:

रुलाता मन/बैठने को तरसें/पोते के संग। 

और उस पर भी यदि जीवन साथी बिछड़ जाए, तो अकेले वृद्ध का जीवन और भी कठिन हो जाता है, केवल यादों का सहारा ही शेष रह जाता है। जेन्नी शबनम के शब्दों में:

किससे कहें/जीवन साथी छूटा/ढेरों शिकवा। 

मन चाहता/इन सूनी राहों का/कोई हो साथी। (हरदीप कौर संधु) 

वृद्धावस्था दे/यादों की विरासत/वसीयत में। (मंजू मिश्रा) 

रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ जी का गहरा अर्थ भरा यह हाइकु मर्मस्पर्शी है:

टूटा जो पेड़/छोड़ गए थे पाखी/लता लिपटी। 

अकेलापन वृद्धों की बहुत बड़ी समस्या है। अकेलेपन से चिंता, तनाव, अवसाद तथा स्वास्थ्य भी प्रभावित होता है। अकेलेपन को बहुत-से हाइकुकारों ने अपने-अपने ढंग से अभिव्यक्ति दी है। शिला-सा भारी लगने वाला अकेलापन ख़ुद ही कहता, ख़ुद ही सुनता है, अनकही पुकारें अनसुनी ही रह जाती हैं। जीवन का समाहार काँपते हाथ, अकेले लिखने के लिए विवश हो जाते हैं। रह-रह कर स्मृतियाँ झकझोरने लगती हैं। आइए महसूस करें इन हाइकु में छिपी वृद्धों की पीड़ा:

रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’:

बेचैन मन/शिला-सा भारी हुआ/अकेलापन 

मैंने ही बोला/सुना सिर्फ़ मैंने ही/उत्तर डूबे। 

देते दिलासा/दूर बस्ती के दीये/तोड़ते चुप्पी। 

सुरंगमा यादव:

जीवन संध्या/एकाकीपन साथ/शिथिल गात। 

जीवन संध्या/लिखते समाहार/काँपते हाथ। 

अंजू निगम:

पीले सफहे/गुनगुना जाते हैं/पुराना गीत। 

जेन्नी शबनम:

अकेलापन/सबसे बड़ी पीर/वृद्ध जीवन। 

हरदीप कौर संधु:

चारों ओर है/चेहरों का जंगल/मन अकेला। 

अनिता मंडा:

वापसी बेला/कहाँ–कहाँ डोलता/मन अकेला। 

बुज़ुर्गों के आशीर्वाद में बड़ी शक्ति होती है, उनकी दुआओं से जीवन में ख़ुशहाली आती है। जिन घरों में बुज़ुर्गों का मान-सम्मान होता है, वह घर स्वर्ग के समान हो जाता है, वहाँ सकारात्मक ऊर्जा रहती है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हम आज जो कुछ भी हैं, अपने माता-पिता और बड़े-बुज़ुर्गों के परिश्रम और त्याग से ही हैं। वे यदि कुछ कह भी देते हैं तो उनकी बातों का बुरा क्या मानना। उन्हें अपमानित करना तो सबसे बड़ा पाप है। कभी–कभी उम्र के साथ बुज़ुर्गों का स्वभाव चिड़चिड़ा-सा हो जाता है, ऐसा किसी परेशानी के कारण भी हो सकता या शरीर में हार्मोनल बदलाव के कारण भी हो सकता है। ऐसे में उनके साथ संवेदनशीलता और सहानुभूति से पेश आकर उनकी परेशानी को समझने की कोशिश करनी चाहिए, घर की विभिन्न गतिविधियों में उन्हें भी शामिल करके व्यस्त रखते हुए थोड़ा समय उनके साथ भी व्यतीत करना ही चाहिए। असंवेदनशीलता और संवादहीनता रिश्तों के लिए घातक है। बुज़ुर्गों का आशीष, उनके अनुभव तथा परम्परा की पूँजी लेकर हम अपने जीवन को सुन्दरतम बना सकते हैं:

ले लो उनसे/परम्परा की थाती/अमूल्य धन। (भावना सक्सेना) 

बूढ़े माँ-बाप/कभी मिटा के देखो/थोड़ी तन्हाई। (प्रियंका गुप्ता)

घर का मान/बुज़ुर्गों का सम्मान/स्वर्ग समान। (ऋता शेखर)

जीवन खिले/बुज़ुर्गों का आशीष/ख़ूब जो मिले। (जेन्नी शबनम)

यूँ ही तो नहीं/चिड़चिड़ाते बाबा/कुछ है कहीं। (सुरंगमा यादव)

थके जो पाँव/वृक्ष जैसे बुज़ुर्ग/देते ये छाँव। (उपमा शर्मा) 

वृद्धावस्था या सेवानिवृत्ति का अभिप्राय जीवन से विरक्ति कदापि नहीं है। जीवन में उम्र के हर पड़ाव का अपना महत्त्व होता है। कुछ लोग सेवानिवृत्ति को जीवन के उल्लास का समापन समझ लेते हैं, जो उचित नहीं है। मन की ऊर्जा बनी रहनी चाहिए। पीढ़ी के अंतराल को स्वीकारें, पोते-पोतियों के संग रहने का सौभाग्य मिला हो, तो उसमें रम जाएँ। युवा बच्चों पर पैनी नज़र की पकड़ ढीली कर उन्हें भी स्पेस दें। उदासी कितनी भी गहरी क्यों न हो, आत्मबल कभी भी कम न हो। नई परिस्थितियों को नए नज़रिए से स्वीकार कर, ज़िन्दगी को पूरी ऊर्जा के साथ जिएँ, ऐसे ही भावों से ओतप्रोत कुछ हाइकु द्रष्टव्य हैं:

मैं नहीं हारा/है साथ न सूरज/चाँद न तारा। (रामेश्वर काम्बोज)

आयु के साथ/कब होती है कम/सूर्य की ऊर्जा। (उमेश महादोषी)

सक्रिय वृद्ध/तन-मन से स्वस्थ/सुखी जीवन। (ऋता शेखर)

जीवन काव्य/नूतन अभिव्यक्ति/सेवानिवृत्ति। (सुरंगमा यादव)

छोड़ें मलाल/पीढ़ी का अंतराल/करें स्वीकार। (सुरंगमा यादव)

उदासी बीच/आत्मबल ने कहा/हैलो ज़िन्दगी। (मीनू खरे)

सेवानिवृत्ति/थामा ज्यों नन्हा हाथ/प्यारी-सी ड्यूटी। (पूर्वा शर्मा) 

प्रकृति का ये नियम हमें स्वीकारना ही होगा:

शरद सीढ़ी/गिरे पत्तों पे चढ़े/नवल पीढ़ी। (डॉ. कुँवर दिनेश सिंह) 

हिंदी-हाइकु ‘वृद्ध विमर्श’ के रूप में वृद्धों की समस्याओं को गम्भीरता से उठा रहा है। हमें वृद्धों के मान–सम्मान तथा सुरक्षा को लेकर ज़िम्मेदार बनना होगा। हमें यह भी सोचना होगा कि वृद्ध हमेशा से ऐसे नहीं थे और न हम हमेशा ऐसे रहेंगे। वृद्धों ने भी घर-परिवार और समाज के लिए अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है, जिसे भुलाकर हम उनकी अवहेलना नहीं कर सकते। हमारे समाज में हमेशा से ही बच्चों को सुसंस्कृत बनाने तथा भटके युवा मन को सही रास्ते पर लाने में भी घर के बड़े–बुज़ुर्गों की भूमिका अहम रही है। हिंदी हाइकु ‘वृद्ध-विमर्श’ के द्वारा समाज को वृद्धों के प्रति संवेदनशील बनाने की दिशा में प्रयासरत है। 

2 टिप्पणियाँ

  • 14 Jan, 2025 08:14 PM

    बहुत सुन्दर लिखा है डॉ सुरंगमा यादव जी, हार्दिक शुभकामनाएँ।

  • 31 Dec, 2024 11:23 PM

    वृद्धावस्था पर आधारित बहुत सुंदर, प्रभावशाली आल। सुरंगमा जी को इस सृजन के लिए हार्दिक बधाई ।

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