03 - ऊँची दुकान फीका पकवान

21-02-2019

03 - ऊँची दुकान फीका पकवान

सुधा भार्गव

10 अप्रैल 2003

हीथ्रो एयरपोर्ट पर जैसे ही घड़ी ने साढ़े ग्यारह बजाए उम्मीदों की डगमगाती नैया पर सवार हो एयर कनाडा ऑफिस के सामने खड़े हो गए मानो कोई भूखा रोटी पाने के लालच में हाथ फैलाए हो। बड़ी देर बाद एक अमेरिकन सज्जन प्रकट हुए। प्रार्थना करते हुए टिकट के लिए अपनी झोली उनके सामने कर दी। कुछ देर बाद गिटपिट करते हुए बोले-There is no seat in Air Canada Flight। हम गिड़गिड़ाए, बीमारी का वास्ता दिया पर वे नहीं पिघले तो नहीं पिघले। तभी दया दृष्टि लिए एक प्रवासी भारतीय हमारे पास आया। जिसकी नियुक्ति यात्रियों की सहायता के लिए ही की गई थी। उसने हमें रास्ता सुझाया और बताया – एयर इंडिया और एयर कनाडा में तनातनी का बाज़ार गर्म है। दोनों एकदूसरे के यात्री नहीं लेते। आपको एयर इंडिया वाले ही टिकट दिलवाएँगे। उन्हीं के ऑफिस के आगे धरना देकर बैठ जाइए। ऊँचे स्तर की यह अनबन हमारी समझ से बाहर थी पर इतना ज़रूर था कि दो पाटों के बीच में हम घुन की तरह पिसे जा रहे थे।

एयर इंडिया ऑफिस वापस जाते ही हमें अपने बुरे नक्षत्रों का अभिशाप लुप्त होता नज़र आया। हमें ब्रिटिश एयरवेज़ के दो टिकट उपलब्ध हो गए जिनकी शत-प्रतिशत पुष्टि भी हो चुकी थी। इस बार हम सावधान भी थे और फूँक-फूँककर कदम रखना चाहते थे। पर हमारा सिरदर्द अभी ख़त्म नहीं हुआ था। यह उड़ान केवल टोरोंटो तक ही जाती थी। सार्स के कारण टोरोंटो से पीछा छुड़ना चाहते थे पर उसी को गले लगाना पड़ा। हम तो यही सोचते थे कि हमारा देश अन्य राष्ट्रों की तुलना में पिछड़ा, अशिक्षित तथा अव्यवस्थित है पर हीथ्रो हवाई अड्डे की दौड़ लगाते-लगाते हमारी आँखें खुल गई। ऊँची दुकान में फीका पकवान भी मिलता है।

टोरोंटो जाने वाली उड़ान दोपहर के साढ़े तीन बजे थी। उसकी घोषणा होने पर हम विमान की ओर इस तरह भागे जैसे आकाश नहीं अन्तरिक्ष की सैर करने का अवसर मिल गया है और हम सारी परेशानियाँ भूल गए।

टोरोंटो की भूलभुलैया

ब्रिटिश एयरवेज़ से हम टूटे मन के तारों को जोड़ते हुए टोरोंटो पहुँच गए। कई स्थानों पर लोग मुँह व नाक पर मास्क लगा हुए थे। कोई झूठे से भी छींकता तो लगता बस हुआ हमें सार्स। बचते-बचाते सबसे पहले उस अफ़सर पर पहुँचे जिससे ओटवा की उड़ान के लिए बोर्डिंग पास बनवाना था। उसने भी हमें लट्टू की तरह घुमाना शुरू कर दिया और कहा- ट्रेन से टर्मिनल1 में जाइए। उसी जगह से बोर्डिंग पास बनेगा और वहीं से विमान ओटावा जाएगा। रात के दस बजे की उड़ान है! जल्दी जाइए, 7 तो बज ही रहे हैं।

“हमारा समान कहाँ है?” मैंने हड़बड़ाते पूछा।

“आपका समान टर्मिनल1 पर ही मिलेगा। ब्रिटिश एयरवेज़ वालों ने पहुँचा दिया होगा। हाँ सामान को दुबारा तुलवाना पड़ेगा।“

मुझे तो अब अपने से ज़्यादा सामान की चिंता खाने लगी। कहीं एक अटैची हीथ्रो एयरपोर्ट पर रह गई तो... यदि यहाँ समान तौलते समय एक किलो भी ज़्यादा निकाल आया तो.... ओह! मुसीबत ही मुसीबत! न जाने कितने डरावने भूत नज़र आने लगे।

दो दिन पहले हिमपात हो चुका था। ठंडी कंपकपाने वाली हवा सरसरा रही थी। ऐसे में सिर पर टोपी और गले में कसकर मफलर लपेट कसमसाते हुए मुश्किल से 10 मिनट ट्यूब ट्रेन का इंतज़ार किया होगा पर हमारी तो कुकड़ी बोल गई। टर्मिनल1 पर बोर्डिंग पास काउंटर पर सरलता से मिल गया और पास ही रखी अपनी अटैचियों को देख बाछें खिल गईं। गज़ब की फुर्ती से हमने दो ट्रॉली ली और भारी भरकम सामान को तौलने की मशीन पर चढ़ाने लगे। सामान तौलने वाला कर्मचारी मुसलमान भाई था। उसने सामान उठाने में हमारे मदद की और हँसते हुए बोला-“बड़ा वज़न है! आप क्या ले जा रहे हैं?”

प्रश्न सुनते ही होश उड़ गए – यह बंदा ज़रूर अटैचियाँ खुलवाएगा। अपने पर काबू रखते हुए बोली – “अजी आप तो जानते ही हैं –बच्चे कितने भी बड़े हो जाएँ पर हम ममता के मारे उनके लिए ढोया-ढाई करते ही रहते हैं। शादी बाद बहू-बेटे अपना काफी समान भारत ही छोड़ आए थे। उनका घर बसाना है और हमारी बगिया में एक नया फूल भी खिलने वाला है। कुछ रस्में भी अदा करनी है तो... सामान तो होगा ही। हमारी–आपकी सामाजिक परम्पराएँ तो एक ही हैं। यहाँ वाले पारिवारिक गठबंधन क्या जानें।“ बड़ी सहजता से सब कुछ कहने का साहस कर गई।

“मुबारक हो जी। आप पोते के साथ भारत लौटें।“

उसके एक वाक्य से हमारा रोम-रोम पुलकित हो गया। यात्रा के दौरान यह पहला व्यक्ति था जिससे अपने मन की बात कह सके। हँसते हुए हमने उससे विदा ली। दो मिनट में ही सज्जन मियाँ हमारे हो गए। कौन कहता है हिन्दू-मुसलमान अलग-अलग कौमें हैं। पहले तो वे इंसान हैं...जज़्बाती इंसान। अब ततैये–बिच्छू तो सभी जगह हैं जो ज़हरबाद फैलाने की फ़िराक में अमन चैन घोलकर पी जाते हैं।

कनेडियन उड़ान

एयर कनाडा यान जब रात के दस बजे आकाश को चूमता उड़ा तो प्रफुल्लता का सागर उमड़ पड़ा। जैसे–जैसे वह हमें अपनी मंज़िल की ओर ले जा रहा था, ताजी हवा के झोंकों की तरह ख़ुशनुमा वातावरण लग रहा था। उठती हुई भावनाओं के ज्वार से चेहरे पर अनोखी मुस्कान बिखर गई थी। बोझिल वातावरण से हम उबर चुके थे। हम मियाँ-बीबी अपनी गुटरगूं में इतने खो गए कि विमान में क्या घोषणा हुई, विमान परिचारिका क्या लेकर हमारे पास से गुज़र गई – कुछ पता न रहा। सारा का सारा ध्यान अपने बहू-बेटे की ओर लगा हुआ था कि बस किसी तरह ओटावा पहुँच जाएँ।

देखते ही देखते हवाई जहाज सितारों की दुनिया से उतरकर ओटावा एयरपोर्ट पर पैर जमाने लगा। लग रहा था मानो हम शनिग्रह से देवग्रह में प्रवेश कर रहे हैं। आनंदातिरेक के कारण भोगा दुख भूल गए। एयरपोर्ट से निकलते ही निगाहें खोजने लगीं अपनों को। उनकी झलक पाते ही शबनम की तरह चमकते मोती से पल हमने अपनी मुट्ठी में भींच लिए।

क्रमशः-

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

डायरी
लोक कथा
विडियो
ऑडियो

विशेषांक में