25 - पितृ दिवस
सुधा भार्गव19 जून 2003
पितृ दिवस
ओंटेरिओ में पितृ दिवस मनाने की तैयारी हो रही है। हर पत्रिका में पिता से संबन्धित कोई विज्ञापन या उनसे जुड़ी यादें पढ़ने को मिलती हैं। बच्चे अपने पिता को उपहार आदि देकर उनको मान देते हैं और प्यार जताते हैं। मेरे ख़्याल से मेरी पोती अवनि को भी चाहिए कि अपने पापा को कोई गिफ़्ट दे। मगर देगी कैसे! नन्हे-नन्हे हाथ, नन्हे-नन्हे पैर। एक क़दम चल तो सकती नहीं। हाँ याद आया –कुछ दिन पहले मातृ दिवस था। उसका पापा एक सुंदर सी टी-शर्ट ख़रीदकर ले आया और अवनि से उसकी माँ को दिलवा दी। बस मन गया मातृ दिवस। पितृ दिवस भी ऐसे ही मन जाएगा। माँ लाएगी और वह अपने पापा को टुकुर-टुकुर देखती दे देगी। वैसे मेरा बेटा उसे बड़ा प्यार करता है। उसके लिए कहो तो आकाश के तारे तोड़कर ले आए। ऑफ़िस से आते ही उसे बाँहों के झूले में झुलाकर अपनी सारी थकान भूल जाता है।
इस नन्ही बच्ची के संग-साथ ने तो मुझे अपने बचपन के कगार पर ला खड़ा किया है। पिता जी का चेहरा मेरी आँखों में घूम-घूम जाता है। हम छह भाई-बहन — पिताजी ने हमारे लिए क्या नहीं किया! वे मुझे बहुत प्यार करते थे। अपने माँ-बाप की मैं पहली संतान थी। हमेशा अपने साथ-साथ रखना चाहते। घर में घुसते ही कहते – “बड़ी ज़ोर से भूख लगी है। बिटिया कहाँ है?” इसका मतलब था- वे मेरे साथ खाना खाएँगे।
वे शान-शौक़त पसंद शौक़ीन मिजाज़ी थे। बाबा जी तो कहा करते – “तूने मेरे घर क्यों जन्म लिया? लिया होता जन्म किसी राजा-महाराजा के।”
ज़रा भी हम उनकी नापसंद के कपड़े या पुराने डिज़ायन की ड्रेस पहनते तो उनका गट्ठर बनवाकर नौकरों को दे देते और नए-नए कपड़े तुरंत बनवा देते। ज़रा भी चटका या किनारे से टूटा कप-प्लेट देखते तो तुरंत फिंकवा देते। तहसील में रहते हुए भी अगले दिन ही शहर से नए कप-प्लेट आ जाते। उन दिनों मिर्जापुर के कालीन बहुत प्रसिद्ध थे। वहीं के 2-3 कालीन दीवार से सटे चादर में लिपटे खड़े रहते। ख़ास उत्सवों पर ही वे बिछाए जाते। किसी के घर में शादी होती तो बड़े उदारता से दे दिए जाते। ज़रूरतमंद आदमी को घर बनाने के लिए ज़मीन का टुकड़ा लिया तो वापस लेने का नाम नहीं। चुप-चुप ग़रीबों की मदद करते और उसे मुँह पर नहीं लाते।
माँ बचपन में ही छोड़कर चल बसी। अधूरी इच्छाओं और ममता के अभाव में बड़े हुए। निश्चय किया बच्चों के पालन में कोई कमी न रखेंगे। उन दिनों पत्थर के कोयलों की अंगीठी पर पानी गरम होता। गीज़र का चलन न था। सर्दियों के दिनों में नौकर तो सुबह 8 बजे आता पर हमेँ सुबह ही नहा-धोकर स्कूल जाना होता। वे सुबह 6 बजे उठकर कड़ाके की ठंड मेँ अंगीठी जलाते, हमारे नहाने को पानी गरम करते। अम्मा को नहीं जगाते। वे छोटे-भाई के कारण रात को ठीक से सो नहीं पाती थी। दूसरे डरते कि सुबह उठने पर माँ को ठंड लग गई तो उसका असर बच्चे पर भी होगा। डॉक्टर थे इस कारण सफ़ाई का बहुत ध्यान रखते थे। बच्चे होने के समय दाई आती माँ और बच्चे की देखभाल के लिए पर पिता जी उस पर ज़्यादा विश्वास नहीं करते और अपनी देख-रेख में बहुत से काम कराते।
ग़लती होने पर वे मुझे डाँटते। कभी-कभी थप्पड़ भी गाल पर रसीद कर देते। तो बस फुला लेती मुँह। न कुछ खाती, न कुछ पीती। औंधे मुँह लेटकर सोने का बहाना करती पर इंतज़ार करती रहती कब पिता जी आएँ, कब मुझे मनाएँ। बीच-बीच में आँखें खोलकर देखती भी पर झट से आँखें बंद कर लेती- कहीं मेरी नाटकबाज़ी न पकड़ी जाए। थोड़ी देर में ही पिता जी का ग़ुस्सा शांत हो जाता और मेरी सुध लेने दौड़े-दौड़े आते। बस फिर तो प्यार की बौछार शुरू— मेरे गाल पर प्यार करते, उठाते, खाना खिलाते, पैसों से मेरी गुल्लक भर देते। ऐसा था पिता का प्यार।
पिता जी मुझे न तो साड़ी पहनने देते थे और न ही खाना बनाने देते थे। कहते-खाना बनाने को तो ज़िंदगी पड़ी है। शादी से पहले जो सीखना है सीख लो। बाद में न जाने कैसी परिस्थिति हो। एक दिन माँ ने कहा- “बेटे कभी-कभी साड़ी भी पहन लिया करो ताकि बाँधना आ जाए।” मैंने रेशम की हलकी सी साड़ी चाची की सहायता से पहन ली।
इतने में पिता जी आ गए – “कहीं जाना है क्या?”
“नहीं तो,” मेरे गले से मुश्किल से निकला। मैं समझ गई थी कि उनको मेरा साड़ी पहनना पसंद नहीं आया।
“तो साड़ी उतारकर आओ। सलवार कुर्ता पहनो।”
उस समय तो बुरा लगा पर उनकी नापसंद का कारण बाद में समझी। पिता जी को इस बात का अहसास होता था कि अब मैं बड़ी हो गई हूँ। एक दिन ससुराल जाना होगा। इस विचार से ही वे तड़प जाते होंगे। शादी के बाद भी मैंने उनके सामने डरते-डरते साड़ी पहननी शुरू की थी। अब तो ऐसी डाँट-फटकार के लिए तरसती हूँ।
गर्मी की छुट्टियों में ताई अलीगढ़ से आईं। मैं बी.ए. की परीक्षा देकर हॉस्टल से घर पहुँच चुकी थी। 2-3 दिन तो सोती रही, मित्रों से मिलती रही पर रसोई में एक दिन जाकर नहीं झाँका। हाँ, बड़ों को खाना खिलाने, मेज़ लगाने का काम ज़रूर करती थी।
ताई से चुप न रहा गया। बोलीं- “लाला, मुन्नी अब काफ़ी बड़ी हो गई है। एक-दो साल बाद हाथ पीले हो जाएँगे। ससुराल जाकर खाना तो पकाना ही पड़ेगा। उसे दाले–रोटी तो बनानी आनी ही चाहिए।” ताई पिता जी को लाला कहती थीं।
पिताजी हँसकर बोले- “भाभी, इसे चाय बनानी बहुत अच्छी आती है।” ताई की भी हँसी फूट पड़ी। स्नेह का झरना फूट रहा था।
विदायगी के वे पल मुझे अभी तक याद हैं जब पिताजी मुझे अश्रुपूर्ण नेत्रों से देखते हुए ससुर जी से बोले- “मेरे बेटी को सब कुछ आता है पर खाना बनाना नहीं आता है।” मेरे ससुर जी भी बहुत ने व सरल हृदय के थे। तुरंत बोले- “चिंता न करें, खाना बनाना हम सीखा देंगे। बाक़ी काम तो आपने सिखा ही दिए हैं।”
पिता, पिता ही होते हैं। उनके होने से हर संकट की घड़ी में रक्षा की छतरी हमारे ऊपर तनी रहती है।
कहाँ से कहाँ बह चली। क़िस्सा शुरू हुआ था अवनि से और अंत हुआ मुझ पर। मैंने भी यादों के आगोश में बैठकर पितृ दिवस मना डाला।
क्रमशः-
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