05 - बेबी शॉवर डे
सुधा भार्गव
12 अप्रैल 2003 कनाडा पहुँचने के दो दिन पहले बर्फ़ीला तूफान आ चुका था। 10 अप्रैल तक सड़क के दोनों ओर बर्फ़ ही बर्फ़ जमी थी। अब यह पिघल गई है। खिड़की से झाँककर इस अनूठे प्राकृतिक सौंदर्य का आनंद उठा रही हूँ। आमने खड़ा चिनार का वृक्ष/मेपल ट्री पल्लवविहीन होते हुए भी सूर्य की आभा से जीवन पा रहा है। उसके नीचे बिछी बर्फ़ की शुभ्रता युद्ध के मँडराते बादलों के मध्य शांति का संदेश देती प्रतीत होती है। अमेरिका–ईराक के युद्ध के समाचार सुनते–पढ़ते कान पक चुके हैं। टी.वी. में देखे हुए रोंगटे खड़े करने वाले दृश्यों से राहत पाने के लिए प्रकृति में खो जाना चाहती हूँ। आज दोपहर लंच के लिए बहू शीतल की सहेली नमिता के घर जाना है। यहाँ भारत से आए माँ–बाप को विशेष अनुग्रह द्वारा निमंत्रित किया जाता है। जहाँ से निमंत्रण मिलता है वहाँ मित्र एक–एक सब्जी, पूरियाँ या मिठाई बना कर ले जाते हैं। इस सहयोग से 30 जनों के खाने का प्रबंध सरलता से हो जाता है। यहाँ यह ज़रूरी भी है क्योंकि नौकरशाही प्रथा के अभाव में ख़ुद ही मालिक हैं और ख़ुद ही नौकर। शीतल ने भी ले जाने के लिए केक बना लिया है वह भी बिना अंडे के। नमिता की माँ अंडा नहीं खाती हैं। हमने जैसे ही नमिता के घर में प्रवेश किया फोटोग्राफी होने लगी। सबकी नज़रें शीतल पर टिकी थीं। मैं हैरान – यह सब क्या हो रहा है! बाद में पता लगा कि मेरी बहू का ही बेबी शॉवर मनाने का आयोजन है। इस अवसर की सफलता के लिए चुपके–चुपके तैयारियाँ करके भावी माँ का अभिनंदन तालियों की गड़गड़ाहट व आश्चर्य मिश्रित भाव-भंगिमाओं के साथ किया जाता है। मित्र और रिश्तेदार नवशिशु की कुशलता व उसके आगमन की कामना करते हैं। इससे वात्सल्य तरंगे झनझना उठती हैं। जो इस कार्यक्रम के प्रबंधकर्ता होते हैं उनको ही इस उत्सव की जानकारी होती है बाकी सब अनभिज्ञ। इसी कारण मुझे व शीतल को इसके बारे में कुछ पता न था। शीतल किसी की मीठी धुन में समा गई। आने वाले बच्चे की सुखद कल्पना से उसके चेहरे पर ताज़ा गुलाब खिल गए। उसे कुर्सी पर बैठा दिया गया है ताकि थकान उसके लावण्य को कम न कर दे। बारी–बारी से मित्रों ने उपहार देकर अपने स्नेह धागे से उसे बाँध दिया। सारे पैकेट खोलकर वह सबको दिखा रही है और बेटा पास में बैठा देने वालों की प्रशंसा कर रहा है। शौक व अरमानों से अगर कोई वस्तु भेंट में दे तो उस ही के सामने उसकी तारीफ़ में दो बोल बहुत ज़रूर हैं – यह मैंने अभी महसूस किया। बहुत कुछ तो दिया है दोस्तों ने – मॉनिटर, डायपर्स, कॉट, कारसीट आदि–आदि। कोई बेकार का समान नहीं, यह देखकर मुझे बहुत अच्छा लगा। इससे नवशिशु के आने के बाद आर्थिक बोझ उठाने में भी सहायता मिलती है। उपहार देने से पहले पूछ लिया जाता है कि क्या चाहिए? कुछ लोग शिशु पालन से संबन्धित वस्तुओं की सूची बनाकर दुकानदार को भेज देते हैं और बंधुगण अपने पसंद की वस्तु का चुनाव कर दुकान से खरीद लेते हैं। यदि भावी माँ–बाप के पास एक ही तरह की वस्तु दो हो जाएँ तो दुकान से उसे बदला भी जा सकता है। बिल होने पर दाम लौटा दिए जाते हैं। वस्तु लौटाने की अवधि 3-4 माह होती है। यह नियम बड़ा ही भला लगा। न ही अनावश्यक वस्तु का जमाव हो न पैसा नष्ट हो। लंच के बाद आत्मीयता से एक दूसरे से परिचय कराया गया। कनेडियन, इटालियन, मराठी, पंजाबी, मद्रासी, बंगाली सभी तों हैं। विभिन्न क्यारियों के फूल एक ही क्यारी में नज़र आ रहे हैं। "अब कुछ खेल खेले जाएँगे जिनका संबंध गर्भवती माँ से है," शीतल की दोस्त ने ऐलान किया और मुझसे कहा – "आंटी एक बात पूछूँ?" शैतानी उसकी आँखों से टपक रही थी। "हाँ! हाँ पूछो," मैं भी बहुत उत्साहित थी। "अच्छा बताइये! शीतल के पेट का घेरा कितना बड़ा होगा?" मैं तो सकपका गई। जबाब देते न बना। खिसियाई बिल्ली बन मुँह छिपाने लगी। विनोदी लहज़े में वह कहने लगी "आंटी आप तो सबसे ज़्यादा शिल्पी के पास रहती हैं, आपको इतना भी नहीं मालूम!" एक क्षण तो मुझे लगा, वाकई में बड़ी भारी गलती ही गई। मुझे सोच में डूबा देख दूसरी बोली – "यह सब हँसी-मज़ाक है ताकि होने वाली माँ को अधिक से अधिक ख़ुश रखा जा सके।" उपयुक्त उत्तर की आशा में उसने प्रश्न दूसरों की तरफ़ उछाल दिया। कोई संतोषजनक उत्तर नहीं आने पर दूसरा प्रश्न पूछा गया- "अब यह बताया जाए कि बालक किस तिथि को जन्म लेगा? सबने अपने अंदाज़ भरे तीर चलाए। डॉक्टर ने शिशु जन्म की तारीख 8 मई बताई थी। मगर यह किसी को मालूम न थी। जिसने 8 तारीख के सबसे पास वाली तारीख बताई उसे इनाम दिया गया। तालियों की गड़गड़ाहट ओस की बूँद बन माथों पर झलक पड़ी। मेरी नज़रों के सामने 2-3 गर्भवती महिलाएँ बैठी हैं जिन्हें अपने बेबी शॉवर का बेसब्री से इंतज़ार है पर विचित्र बात है न वह उसका प्रबंध कर सकती है और न उसे आख़िरी समय तक अपने ही बेबी शॉवर का पता लग पाता है। हाँ उसका पति अवश्य दूसरों से गुप्त रूप से मिला होता है। शुभ कामनाओं की बौछार करने की बड़ी रोमांचक व अनूठी प्रथा है। इस उत्सव की विनोदप्रियता व चुहुलबाज़ी मुझे अब भी रह-रहकर गुदगुदा देती है। क्रमशः- |
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