10 - पूरी-अधूरी रेखाएँ
सुधा भार्गव
19 अप्रैल 2003 ऐसा लगता है मेरे आसपास पूरी-अधूरी रेखाओं का जाल बिछा हुआ है। एक तरह से इनके बीच रहने की आदत हो गई है, छुटकारा भी तो नहीं पड़ोसी जो ठहरे। सामने वाले सफ़ेद बंगले में शाम होते ही एक नवयुवक घूमने निकलता है। उसका साथी केवल झबूतरा कुत्ता है। वृद्ध माँ–बाप का निवास स्थान अलग है। पहले वे भी इसी के साथ रहते थे पर इस आशा में कि बेटे जॉन का घर बसना चाहिए, इस बड़े घर को छोडकर दूसरे छोटे फ़्लैट में चले गए। यहाँ उम्र व ज़रूरतों के अनुसार आवास-स्थल बदलने में देरी नहीं लगती। जॉन के बूढ़े माँ-बाप विशाल 6 कमरे वाले बंगले को पूरी तरह व्यवस्थित करने में अपने को असमर्थ पा रहे थे। इसी कारण उसे जवान बेटे के हवाले कर दिया और उसने इसके बदले उनके लिए दो कमरे वाले फ़्लैट की व्यवस्था कर दी। मुझे यह बात बहुत पसंद आई। उनका बेटा ज़रा ज़्यादा ही संजीदा रहता है। न मैंने उसे कभी हँसते देखा न ही उसने किसी पड़ोसी से हैलो किया। शादी अभी की नहीं क्योंकि बिना विवाह के वह सब कुछ हो रहा है जो भारत में विवाह के उपरांत होता है। यहाँ यौन संबंधों पर कोई प्रतिबंध नहीं है— न समाज का, न क़ानून का और न भावनाओं का। शायद उस नवयुवक को भी भावनात्मक स्तर पर जुड़ाव पसंद नहीं। बगल वाले घर में रहने वाले पति–पत्नी बड़े कऊशमिजाज़ लगे। उनके दो प्यारे-प्यारे बच्चे हैं। उनके चेहरे पर भी मीठी मुस्कान गुनगुन करती रहती है। उनकी माँ नताशा और मेरे बीच कुछ दिनों तक तो मौन संभाषण चलता रहा। फिर हमारा मिलन दोस्ती में बदल गया। कुछ वर्षों पहले यह परिवार ब्राज़ील से आकर यहाँ बस गया है। नताशा को फूलों से बहुत प्यार है। जरा सा समय मिला बस एप्रिन, ग्लब्स पहन खुरपी हाथ में थाम लेती है। धूप की कर्कशता से बचने के लिए टोपी पहनना नहीं भूलती। ख़ुद तो पौधों की काट-छांट करती ही है आज तो बच्चों के हाथों में भी छोटी सी बाल्टी और खुरपी थमा दी। छोटे–छोटे हाथों से मिट्टी खोदते माँ की नक़ल करते बड़े प्यारे लग रहे हैं। अरे ये तो एक दूसरे की तरफ मिट्टी भी उछाल रहे हैं। हैरानी है इतनी सफ़ाई पसंद देश में बच्चे अपने कपड़े गंदे कर रहे हैं। पर बचपन तो बचपन ही है। सारे नियम–क़ानून ताक में रख दिए जाते हैं। असल में ये बच्चे शाम को नहाते हैं। अंधेरा होते ही नहा-धोकर रात का भोजन करेंगे। वैसे भी मेरे ख़्याल से बच्चों को मिट्टी से एकदम दूर भी नहीं रखना चाहिए क्योंकि उसमें कुछ ऐसे तत्व होते हैं जो बैक्टीरिया से लड़ने की शरीर में क्षमता पैदा करते हैं। एक प्रकार से बाग़ावानी यहाँ की जीवन पद्धति का एक ख़ास हिस्सा है। बच्चों इस तरह से खेल ही खेल में बहुत कुछ सीख जाते हैं। पार्टी-वार्टी में नताशा के यहाँ रिशतेदारों का अच्छा ख़ासा जमघट रहता है। कनेडियन डे के अवसर पर उसके यहाँ भाई-बंधु बिहस्की-बीयर पी रहे थे। हमारे और उसके घर के बीच मुश्किल से चार-पाँच गज ऊँची दीवार खड़ी है। सो ख़ूब मौज-मस्ती सुनाई-दिखाई दे रही थी। नताशा के पति मि॰ थामस अपने 6 वर्ष के बालक को भी गिलास से घूँट भरवा रहे थे। मैं तो यह सब देखकर दंग रह गई पर यथार्थ के धरातल पर उतरते ही सब कुछ स्पष्ट हो गया। पीना-पिलाना तो इनकी परंपरा है। इसका अभ्यस्त करने के लिए बच्चों को बचपन से ही वाइन-बीयर देने लगते हैं दूसरे ठंड भी बहुत पड़ती है। उसका मुक़ाबला करने में यह सहायक होती है। परंतु बच्चों के जन्मदिन या अन्य अवसर पर बाल मित्रों को सोमरस नहीं दे सकते। सुबह शाम मैं पिछली गली का चक्कर लगाते अच्छी सैर कर लेती हूँ। अभी शाम को घूम कर दरवाज़े की सीढ़ियों पर बैठ गई हूँ और निगाहें मेरी आकाश की ओर लगी हैं। लुभावने रंगों के अक्स में भीगा गगन— ओह कितना लुभावना है! अंदर जाने को मन ही नहीं करता। इस समय ज़्यादातर पड़ोसी अपने बग़ीचे में निकलकर बाग़वानी करते हुए प्रकृति प्रेम का परिचय दे रहे हैं। शैली हमारे सामने रहती है। वह अपनी छोटी सी वाटिका में बारबेक्यू में मुर्गी (chicken) भून रही है। शायद उसकी दोनों बेटियाँ आने वाली है। ये अविवाहित माँ की संताने हैं। प्रेमी तो अपने प्रेम की निशानियाँ देकर अलग हो गया। शैली ने बड़ी मेहनत से पाल कर बड़ा किया है। अब तो बड़ी हो गई हैं पर रहती अपनी माँ से अलग ही। नौकरी के कारण रविवार को ही बेटियाँ अपने बॉय फ्रेंड के साथ माँ से मिलने आ पाती हैं और पुराने कपड़ों की तरह अपना बॉय फ्रेंड बदलती रहती हैं। रविवार शैली के जीवन में अनोखा त्योहार बनकर आता है। अलगाव, अकेलापन कितना दहला देने वाला होते है यह मैंने शैली से ही जाना। चुंबनों की तपिश और स्मृतियों की गर्माहट उसके प्रेमी को नहीं बाँध पाई पर वह उन्हीं की जकड़न में तड़प उठती है। उसके इस अत्यंत नाज़ुक संवेदनशील मसले को छूने का साहस मुझ में न था। कौमार्य रक्षा हेतु अपने पर नियंत्रण रखना तो उसके समाज में अनिवार्य नहीं पर इस स्वतन्त्रता में भी अतीत की छीलन उसे चैन से नहीं बैठने देती। समय-बेसमय भीतर बाहर की टूटन उसे दिन में सौ बार रुला देती है। ऐसे पूरे-अधूरों के बीच जब भी मैं चमकीले रंगों की कल्पना करती हूँ, सब गड्ड-सड्ड हो जाते हैं। क्रमशः- |
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