39 - चित्रकार का आकाश
सुधा भार्गवचित्रकार का आकाश
24 अगस्त 2003
इस विराट आकाश के नीचे जहाँ-तहाँ अद्भुत रंगों की झलक देखते ही उस ओर खिंची चली जाती हूँ। कनाडा में तो रंग-बिरंगे फूलों ने मेरा मन ही मोह लिया। मॉल(shopping centre) में अनोखी आभा से दमकते हुए प्रसून –गुच्छे के गुच्छे लटके देख उनकी ख़ुशबू में नहाने के लिए पास ही जाकर खड़ी हो गई। ज़ोर से साँस ली पर पर महकती हवा का ज़रा एहसास नहीं हुआ। छूकर देख भी नहीं सकती थी कि ये नक़ली है या असली क्योंकि उनपर प्लास्टिक कवर था। दूसरे वहीं एक तख्ती लगी थी-लिखा था ‘Don’t touch’।
"बेटा लगता है ये फूल नक़ली हैं?” मैंने अपना संदेह निवारण करना चाहा।
"नहीं माँ.. ये असली ही हैं। इनमें केमिकल्स लगाकर असंक्रामक बनाया जाता है। इसी चक्कर में वे अपनी प्रकृति प्रदत्त सुगंध खो बैठते हैं। उन्हीं को घरों में ले जाकर लगाते हैं और उनसे बने गुलदस्ते भेंट में देते हैं।"
“ऊँह! बिना ख़ुशबू के फूल किस काम के! फूलों की महक तो यहाँ के निवासियों को भी बहुत अच्छी लगती है और पुष्पों से प्यार भी है। तभी तो समय मिलते ही पूरा का पूरा परिवार मिट्टी खोदता, फूलों के बीज डालता, पानी देता या जंगली घास उखाड़ता नज़र आता है। इस मेहनत से जल्दी ही हर छोटे से बग़ीचे में नन्हें- नन्हें फूल हँसते हुए ख़ुशबू फैलाने लगते हैं। ताज्जुब! इनकी ख़ूबसूरती व मन को गुलजार कर देने वाली गंध का घर में प्रवेश निषेध है। लोग न इन्हें सूँघ सकते हैं और न उनकी माला बनाकर भगवान को पहना सकते हैं। फिर तो अपने जूड़े या चोटी में इन फूलों को लगाने की महिलाएँ कल्पना भी नहीं कर सकतीं।"
“माँ ठीक कह रही हो। सब डरे हुये है कि सूँघने से उनमें बैठे सूक्ष्म कीड़े नाक से अंदर प्रवेशकर कोई बीमारी न फैला दें।"
“सब मन का वहम है। हमारे यहाँ तो पौराणिक कथाओं के अनुसार देवी-देवता शृंगार फूलों से ही करते थे। पूजा हो या विवाहोत्सव, फूलों के सौंदर्य व उनकी मदमाती सुगंध के बिना सब अधूरा और फीका-फीका लगता है।’’
“माँ विज्ञान के अनुसार फूलों के बारे में कनेडियन्स के विचार सारयुक्त ही प्रतीत होते हैं। फिर अपनी सोच हम दूसरों पर थोप भी तो नहीं सकते।"
यहाँ फूलों से आच्छदित जितनी रंगीन धरा है उतनी ही संध्या समय आकाश में बादलों की छटा अद्भुत है। रोज़ शाम को दरवाज़े पर बैठकर ठहरे, फुदकते रंग-बिरंगे बादलों को निहारते थकती नहीं। सच में सृष्टि रचने वाले की चित्रकारी का कोई मुक़ाबला नहीं।
खरगोशिया से नन्हें बादल और हंसिका से उड़ते-घुमड़ते बादलों की टुकड़ियों को क्या कभी मैं विस्मृत कर पाऊँगी। मुझ पर छाया विविध फूलों के रंगरूप का नशा क्या कभी उतर पाएगा! नहीं... कभी नहीं। इसीलिए मैंने निश्चय कर लिया कि इन्हें कैनवास पर जरूर उतारूंगी।साथ ही उस महान चित्रकार का दिल से धन्यवाद किया जिसके कारण मेरी सोई उँगलियाँ ब्रुश थामने के लिए पुन: जाग उठीं।
इस काम मे सहयोग देने वाले मेरे दो साथी हैं। बुक शॉप ‘चैप्टर’ और ‘सेंट्रल लाइब्रेरी’। इस सेंट्रल लाइब्रेरी में एक बार में दस-दस किताबें मिलती हैं। किताब की अवधि समाप्त होने पर ई-मेल द्वारा उसे बढ़ाया जा सकता है। इतनी सुविधा! घर बैठे-बिठाये ही काम पूरा। मन ख़ुश हो गया। लेकिन किताबें लौटाने में एक दिन की भी देरी होने पर जुर्माने की काफ़ी राशि का भुगतान करना पड़ता है। अनुशासन की दृष्टि से यह ठीक भी है। ग्राहक इससे सावधान भी रहता है।
मेरा बेटा सेंट्रल लाइब्रेरी का सदस्य था। इसलिए उसके कार्ड पर बहुत सी किताबें निकलवा लेती थी। कम समय में ही किताबों के ज़रिये हिन्दी कहानियों और चित्रकारों से मुलाक़ात हुई। ऐक्रलिक,ऑयल पेंटिंग,वाटर कलर और स्केचिंग की किताबों की तो यहाँ भरमार है। घर में किचिन गार्डन में बड़ी सी प्लास्टिक की मेज़ व कुरसियाँ पड़ी हैं। वहीं अकसर पेड़ों की छाँह में गुनगुनी घूप का मज़ा लेती हुई ब्रुश थामे बैठ जाती हूँ और रंगों से करने लगती हूँ खिलवाड़।
चैप्टर बुक शॉप हमारे घर के पास ही है। मैं भार्गव जी के साथ ऊपर से नीचे तक गरम कपड़ों से लदी पैदल ही चल देती हूँ। इस बहाने कुछ घूमना भी हो जाता और खाना भी हज़म हो जाता। ज़्यादातर लंच के बाद 1 बजे के क़रीब ही निकलते हैं। 3-4 घंटे के बाद बहू को फोन करना पड़ता है ताकि वह हमें लेने आ जाए। हमें तो कार चलानी आती नहीं है।
चैप्टर बुक शॉप में मुझे बड़ा आनंद आता है। कोई ऐसा विषय नहीं जिस पर किताब न मिलती हो। घंटों मन चाहे विषय पर किताब चुनकर उसके पन्ने पलटती रहती हूँ। सामने ही बिछे आरामदायक सोफे पर बैठकर नोट्स भी ले लिए हैं। ताज़गी के लिए हम दोनों कॉफी पीने बैठ जाते हैं। यह कॉफी डे, ‘CHAPTER’ का ही एक हिस्सा है।
असल में सेंट्रल लाइब्रेरी और चैप्टर बुक शॉप का उद्देश्य लोगों में पढ़ने की आदत डालना है। पर चैप्टर बुक शॉप में घंटों बैठे किताबों को पढ़ा भी जा सकता है और पसंद आने पर किताब ख़रीदी भी जा सकती है। जगह-जगह रिसर्च स्कॉलर किताबों के ढेर में अपना सिर खपाते नज़र आ जाते हैं। जो पुस्तकों को अपना मित्र समझता है वह किताब ख़रीदे बिना भी नहीं रहता। सेल में किताब सस्ती मिल जाती हैं। मैंने दो किताबें खरीदीं। एक –वैन गोघ(Van Gogh)की पेंटिंग्स बुक दूसरी में फूलों की पेंटिंग्स ही पेंटिंग्स हैं जिसका सम्पादन रेचल रूबिन बुल्फ (रेचल Rubin Wolf)ने किया है।
मैंने इन किताबों में से देखकर कैनवास पेपर पर फार्म यार्ड के कुछ दृश्य व आकृतियाँ उभारी हैं। चाहती हूँ - बेटा किचिन गार्डन में बारवैक्यू के पास लगाए। शीतल ने उन्हें फ्रेम में जड़कर उनकी सुंदरता दुगुन कर दी है। मैं कोई बड़ी चित्रकार तो नहीं ,पर पल-पल खूबसूरती से गुजारने व मन बहलाने के लिए यह एक बहुत अच्छा साधन है। बच्चे जब भी मेरे तैलीय चित्रों को प्रशंसा भरी नजरों से देखते हैं तो रोम-रोम जगरमगर करने लगता है।
- क्रमश:
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