16 - परम्पराएँ
सुधा भार्गव12 मई 2003
परम्पराएँ:
मेरी पोती मुश्किल से एक, हफ़्ते की हुई होगी कि एक सुबह बहू शीतल को रसोई में चाय बनाते देखा। बड़े प्यार से मेरे हाथों में चाय का कप थमाते हुए बोली, "मम्मी जी आप कई दिनों से बहुत काम कर रही हैं आज मैं खाना बनाऊँगी, आप आराम कीजिए।"
मैं हँसकर उसकी बात झेल गई मगर उसके कार्य की प्रशंसा नहीं कर सकी। मैं अपने समय की छुआछूत तो नहीं मानती। मेरी सास ने सवा महीने तक चौके में घुसने नहीं दिया था और न मेरे पास सबको आने देती थीं। पर इस प्रथा के पीछे छिपी भलाई की भावना को नकार नहीं सकती। इस बहाने मुझे आराम मिल गया और शिशु को माँ की छाया। शारीरिक–मानसिक दृष्टि से हितकर ही रहा।
दो मिनट चुप्पी साधने के बाद मैं सासु माँ के लहजे में बोली- "शीतल, अभी बच्चा बहुत छोटा है, तुम भी कमज़ोर हो। एक बार शक्ति आ जाए, ख़ूब काम करना। अभी अपने पर ज़ोर न डालो। फिर हम तो आए ही तुम्हारी मदद के लिए हैं।"
दूसरे, हफ़्ते से नवशिशु को देखने और उसकी माँ को बधाई देने वालों का ताँता लग गया। बेटा तो बच्चे के दस दिन हो जाने के बाद आफ़िस जाने लगा। अब सब्जी-आटा-दाल आदि लाने का दायित्व शीतल का ही था। कार तो मुझे या भार्गव जी को चलानी आती नहीं थी सो बच्चे को घर में छोड़कर शीतल को बाज़ार जाना ही पड़ा। मुझे यह सब देखकर लगा – उसके साथ ज़्यादती हो रही है। मैं उसकी कोई ख़ास मदद नहीं कर पाती हूँ। एक बात और है, कोई घर कितना ही सँभाल ले माँ का काम तो माँ को ही करना पड़ता है। उसकी तो नींद ही पूरी नहीं होती थी।
अवनि से मिलने ख़ूब मित्रमंडली आती । कोई प्यार से बच्चे को उठाता, कोई उसकी माँ से गप्प लड़ाता। परंतु कभी-कभी यह प्यार बड़ा महँगा पड़ जाता है। एक बार तो मुझे कहना भी पड़ा-"पहले हाथ धो लो तब बच्चे को उठाना"। आज भी कुछ दोस्त आने वाले हैं। चाँद और शीतल उनके खानपान का प्रबंध करने में दो दिन से जुटे हैं। डिनर के समय गरम–गरम पूरियाँ तो मैं तल दूँगी। कुछ तो हाथ बंटाऊँ उनका। कम से कम 3-4 घंटे तो महफ़िल जमेगी ही।
एक बात किसी के ध्यान में नहीं आती कि शीतल को बच्चे का भी काम है। वह उसे देखेगी या मेहमान नवाज़ी करेगी। फिर नई माँ की थकान का तो ध्यान रखना ही चाहिए। क्या बताऊँ सब अल्हड़-मस्त हैं। मैं तो देख देख कुढ़ती ही रहती हूँ।
दोस्तों के जाते ही शीतल थककर बैठ गई।
"शीतल, क्या बात है?"
"कमर में दर्द हो रहा है।"
"वह तो होगा ही। कमज़ोर शरीर है तुम्हारा। बच्चे के बहाने ही उठ जाती सबके बीच से," मेरे स्वर में झुंझलाहट थी।
"अच्छा नहीं लगता उठना पर अवनि भूखी सो गई।"
"ऐसी औपचारिकता किस काम की। अब तो जाओ बच्चे के पास और तुम भी आराम करो। घर के काम तो चलते ही रहेंगे –हो जाएँगे सब।"
कोई माने या न माने मुझे तो अपने समाज की प्राचीन परम्पराओं से लगाव ही है। उनके महत्व को झुठलाना संभव नहीं। बाल-जन्म के बाद जच्चा-बच्चा को अलग ही रखा जाता था। मतलब, हर कोई न उनके कमरे में जा सकता था न उनके आराम करने, नहाने–धोने और खाने-पीने के उपक्रम में बाधा पड़ती थी। इसके अलावा नवजात शिशु की माँ भी दुर्बल होती है। ऐसे में बड़ी सरलता से दूसरों से बीमारी की छूत लग सकती है। एक महिला माँ-बच्चे का काम सँभालती थी। वही ज़्यादातर उसके पास रहती थी। घर का काम परिवार के अन्य सदस्य देखते थे। सवा-डेढ़ माह के बाद माँ में इतनी शक्ति आने लगती थी कि वह बच्चा और घर देख सके। आजकल पहली वाली बातें नहीं चल पातीं। एक तो एकल परिवार हो गए हैं दूसरे,बच्चे अस्पताल में होते हैं जो स्वच्छता और स्वास्थ्य की दृष्टि से अति उत्तम है। परन्तु घर लौटने पर माँ-बच्चे की देख-भाल के लिए दूसरों की जरूरत तो अब भी पड़ती है। इसी कारण प्रवासी बहू-बेटियों के लिए माँ-सासें अपना देश अपना आराम छोड़ भागी-भागी उनके पास चली आती हैं। इसके अतिरिक्त एक नारी की पीड़ा एक नारी ही तो समझ सकती है।
क्रमशः-
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