20 - छुट्टी का आनंद
सुधा भार्गव17 मई 2013
यह तो मानना ही पड़ेगा की यहाँ के लोग स्वावलंबी हैं। समय को अपनी मुट्ठी में बंद करना अच्छी तरह जानते हैं। मजाल है अनावश्यक रूप से ज़रा भी समय फिसल कर धूल में मिल जाए।
छुट्टी होने पर भी समय का दुरुपयोग इन्हें गवारा नहीं। उस दिन सभी पुरुष- औरतें घर की साज-सँवार में लग जाते हैं। कोई दरवाज़ों पर पोलिश कर रहा है तो कोई गैराज खोलकर फ़र्नीचर बनाने में मशगूल है। बढ़ईगिरी के समस्त औज़ार घर में रहते हैं। यहाँ मज़दूरी बहुत महँगी है। ख़ुद काम करके पैसा बचाया जा सकता है। पैसा होने पर भी जो काम ख़ुद किया जा सकता है उसे करने में वे न हिचकते हैं और न उन्हें अपनी इज़्ज़त जाती नज़र आती है। कुछ फ़र्नीचर के भाग अलग-अलग मिलते हैं जो मशीन से बनते हैं। बस घर में आकर उनके पेच फ़िट करने होते हैं और देखते ही देखते चंद पलों में मेज़-कुर्सी खड़ी नज़र आने लगती हैं।
भारत का कलात्मक व नक़्क़ाशीदार फ़र्नीचर अब्बल तो यहाँ मिलता नहीं और यदि मिलता भी है तो बहुत ऊँचे दामों पर। भारत की हस्तनिर्मित कला का भला यहाँ क्या मुक़ाबला! पर मशीनी उत्पादन ने यहाँ के जीवन को सरल व सुविधाजनक बना दिया है।
छुट्टी के दिन घर से फ़ुर्सत मिलती है तो कनेडियन एकल परिवार ख़रीदारी करता नज़र आता है।
एक रविवार को मैं भी अपने बेटे के साथ ख़रीदारी के लिए वॉल मार्ट गई। 15 दिन की अवनि और उसकी माँ घर पर ही थीं। वहाँ घुसते ही मैं तो चकित सी रह गई। छोटे-छोटे सफ़ेद गुलाबी चेहरे प्रेंबुलेटर में लेटे नज़र आ रहे थे। और उनकी मम्मियाँ मज़े से ख़रीदारी कर रही थीं। हमारे यहाँ तो नवजात शिशु को घर से बाहर ले जाने की कल्पना भी नहीं की जा सकती। हम तो सोचते ही रह जाते हैं बच्चे को कैसे ले जाएँ—गर्मी का असर हो जाएगा—किसी की छूत लग जाएगी। इस धमाचौकड़ी में बच्चे और उसकी माँ को कम से कम घर में सवा महीने तो बंद रखते ही हैं। चाहें देश में हों या विदेश में इस मानसिकता को हम अपने से चिपटाए ही रहते हैं।
जहाँ तक भारत की बात है—समझ में आती है वहाँ की धूल धूसरित सड़कें, शोर शराबा —चीं—पीं-पीं जैसा वातावरण शिशु के स्वास्थ्य की दृष्टि से ठीक नहीं। पर कनाडा में तो वातानुकूलित कारें हैं और बाज़ार भी वातानुकूलित। न शीत का प्रकोप न गरम हवा के थपेड़े। घर तो हैं ही पूर्ण आधुनिक। इस कारण उनको घर से निकालने में क्या हर्ज है।
कुछ भी हो भारतीय समाज में सवा माह तक तो बच्चा और माँ दोनों को कमज़ोर और नाज़ुक ही समझते हैं। जिसका इलाज है केवल खाओ-पीओ और चादर तान सो जाओ। तभी माँ बनने के बाद अधिकतर भारतीय महिलाओं की सेहत कुछ ज़्यादा ही अच्छी हो जाती है।
मैं भी यही सोचती थी कि बहू को कम से कम सवा डेढ़ माह तक घर से बाहर नहीं निकलना चाहिए पर वॉल मार्ट जाने पर मेरी आँखें खुल गईं और अपनी ग़लती का एहसास हुआ।
हमने भी निश्चय किया कि अगली छुट्टी पर सब साथ-साथ जाएँगे। पर अवनि को गोदी में लेकर नहीं बैठ सकते थे। उसके लिए कुर्सीयान की व्यवस्था करनी ज़रूरी थी। यह कार में पीछे की सीट पर रखी होती है। 9 किलो तक के शिशु को ‘टोडलर कार चेयर’ में पेटी से कसकर बैठाया जाता है। यह पेटी विशेष प्रकार की होती है ताकि बच्चे की गरदन और कमर सीट के पिछले भाग से सटी रहे और किसी अंग को झटका न लगे। टोडलर चेयर न होने पर ज़ुर्माना भुगतना पड़ता है। ज़ुर्माने के झंझट में कौन पड़े यह सोच बेटा पहले बच्ची के लिए यह ख़ास चेयर ख़रीदकर लाया।
बस मौक़ा देखते ही बड़े शौक से नन्ही सी अवनि और उसकी माँ के साथ ‘बेशोर मॉल’ चल दिए । दो घंटे ख़ूब आराम से घूमे। सपरिवार घूमने का मज़ा कुछ और ही है। चाँदनी ने घर की ज़रूरत का सामान ख़रीदा। घर में रहते –रहते उसे भी घुटन हो रही थी।
यहाँ आकर मुझे आइसक्रीम खाने की बुरी लत पड़ गई है। फ्रिज में तो रहती ही है। बाज़ार में भी खाना नहीं छोड़ती। फिर आज तो सब छुट्टी मनाने के मूड में थे तब भला मैं कैसे पीछे रहती। मैंने डिनर की तो छुट्टी कर दी और उसके बदले डेरी कुइन के आगे खड़े होकर ख़ूब आइसक्रीम पेट में उतार ली।
अवनि के कुलबुलाते ही हम चल दिए। दो घंटे तक बच्ची सोती रही यही हमारे लिए बहुत बड़ा वरदान था।
*
घर में घुसते ही मैंने रसोई का मोर्चा सँभाला।
कुछ देर में बेटा भी आकर मेरा हाथ बँटाने लगा। काबुली चने, राजमा अच्छे बना लेता है। मसाल मूढ़ी बनाने में तो उस्ताद है। कनाडा आकर खाना बनाना उसने ख़ूब सीख लिया है। यहाँ के पानी में आत्मनिर्भरता घुली हुई है।
कुछ देर बाद मैंने कहा – ख़रीदे समान की जाँच-पड़ताल तो कर लो। पता लगा पिस्ते का पैकिट हम उस काउंटर से उठाना भूल गए जहाँ सामान के दाम चुकाए थे। सोना बिल लेकर भागा गया।
पैकिट लेकर घर में घुसा तब चैन मिला।
"मुझे तो मिलने की आशा न थी। कोई भी वहाँ से ले जा सकता था," मैंने कहा।
"माँ, यहाँ ऐसा नहीं होता। कनाडा ईमानदारी के लिए प्रसिद्ध है। कनेडियन मेहनत की कमाई खाते हैं।"
"तूने ठीक ही कहा। मेहनत का रंग तो मैं छुट्टी के दिन भी देख रही थी। चलो खा–पीकर थोड़ा आराम कर लिया जाए।"
दरवाज़ा खुला हुआ था । मैं बंद करने उठी तो देखा- पड़ोसी अपनी बड़ी सी वैन निकाल रहे हैं। शायद वह टोयटा थी। उसके पीछे लकड़ी की नाव और चप्पू बँधे हुए हैं। 2-3 साइकिलें भी अंदर की ओर रखी हुई हैं।
मैं आश्चर्य से बोली- "सुबह से तुम्हारे पड़ोसी को काम करते देख रही हूँ। कभी कार साफ़ कर रहे हैं तो कभी अपना बग़ीचा। अब दोपहर को कहाँ चल दिए?"
"माँ, अब यह पूरा परिवार समुद्र के किनारे पिकनिक मनाने जा रहा है। सैर सपाटे के साथ सेहत भी बनाएँगे। साइकलिंग करेंगे, तैरेंगे और नाव चलाएँगे। यह भी तो स्वास्थ्य के लिए ज़रूरी है।"
"खाएँगे कब –समय तो बहुत हो गया!"
"समुद्र तट पर ही खाएँगे-पकाएँगे। वह देखो बारबेक्यू और गैस स्लेंडर बेटा ला रहा है।"
"बाप रे इतना भारी-भारी समान! पूरी उठा पटक है।"
"इनका शरीर बोझा उठाने, मीलों पैदल चलने और निरंतर काम करने का आदी होता है। शुरू से बच्चों का पालन पोषण इसी प्रकार किया जाता है कि आगे चलकर वे एक ज़िम्मेदार नागरिक बनें।"
सच में छुट्टी का आनंद उठाना तो यहाँ की संस्कृति में पलने वाले लोग जानते हैं। उनकी इस मनोवृति ने मेरी विचारधारा ‘छुट्टी का मतलब –न काम न धाम ,बस आराम ही आराम’ को बदलकर रख दिया।
क्रमशः-
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