अक़्ल बिना नक़ल
सुधा भार्गवबहुत समय पहले एक देश में अकाल पड़ा। पानी की कमी से सारी फसलें मारी गई। देशवासी अपने लिए एक वक़्त की रोटी भी नहीं जुटा पाते थे। ऐसे समय कौवों को रोटी के टुकड़े मिलने बंद हो गए। वे जंगल की ओर उड़ चले।
उनमें से एक कौवा–कौवी ने पेड़ पर अपना बसेरा कर लिया। उस पेड़ के नीचे एक तालाब था जिसमें पानी में रहने वाला जलकौवा रहता था। वह सारे दिन पानी में खड़े कभी मछलियाँ पकड़ता, कभी पानी की सतह पर पंख फैलाकर लहरों के साथ नाचता नज़र आता।
पेड़ पर बैठे कौए ने सोचा – मैं तो भूख से भटक रहा हूँ और यह चार–चार मछलियाँ एक साथ गटक कर आनंद में है। यदि इससे दोस्ती कर लूँ तो मुझे मछलियाँ खाने को ज़रूर मिलेंगी।
वह उड़कर तालाब के किनारे गया और शहद सी मीठी बोली में कहने लगा – "मित्र तुम तो बहुत चुस्त–दुरुस्त हो। एक ही झटके में मछली को अपनी चोंच में फँसा लेते हो, मुझे भी यह कला सीखा दो।"
"तुम सीख कर क्या करोगे? तुम्हें मछलियाँ ही तो खानी हैं। मैं तुम्हारे लिए पकड़ दिया करूँगा।"
उस दिन के बाद से जलकौवा ढेर सारी मछलियाँ पकड़ता। कुछ ख़ुद खाता और कुछ अपने मित्र के लिए किनारे पर रख देता। कौवा उन्हें चोंच में दबाकर पेड़ पर जा बैठता और कौवी के साथ स्वाद ले लेकर खाता।
कुछ दिनों के बाद उसने सोचा – मछली पकड़ने में है ही क्या! मैं भी पकड़ सकता हूँ। जल कौवे की कृपा पर पलना ज़्यादा ठीक नहीं।
ऐसा मन में ठान कर वह पानी में उतरने लगा।
"अरे दोस्त! यह क्या कर रहे हो? तुम पानी में मत जाओ। तुम ज़मीन पर रहने वाले थल कौवा हो जल कौवा नहीं। जल में मछली पकड़ने के दाव-पेंच नहीं जानते, मुसीबत में पड़ जाओगे।"
"यह तुम नहीं, तुम्हारा अभिमान बोल रहा है। मैं अभी मछली पकड़कर दिखाता हूँ," कौवे ने अकड़कर कहा।
कौवा छपाक से पानी में घुस गया पर ऊपर न निकल सका। तालाब में काई जमी हुई थी। काई में छेद करने का उसे अनुभव न था। उस बेचारे ने उसमें छेद करने की कोशिश भी की। ऊपर से थोड़ी सी चोंच दिखाई भी देने लगी पर निकलने के लिए बड़ा सा छेद होना था। नतीजन उसका अंदर ही अंदर दम घुटने लगा और मर गया।
कौवी कौवे को ढूँढती हुई जलकौवे के पास आई और अपने पति के बारे में पूछने लगी।
"बहन, कौवा मेरी नक़ल करता हुआ पानी में मछली पकड़ने उतर पड़ा और प्राणों से हाथ धो बैठा।। उसने यह नहीं सोचा कि मैं जलवासी हूँ और ज़मीन पर भी चल सकता हूँ पर वह केवल थलवासी है। मैंने उसे बहुत समझाया पर उसने एक न सुनी।"
कौवी ने कौवे की नासमझी पर माथा ठोक लिया और गहरी साँस लेते हुए बोली -
"नक़ल के लिए भी तो अक़्ल चाहिए।"
0 टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
- डायरी
-
- 01 - कनाडा सफ़र के अजब अनूठे रंग
- 02 - ओ.के. (o.k) की मार
- 03 - ऊँची दुकान फीका पकवान
- 04 - कनाडा एयरपोर्ट
- 05 - बेबी शॉवर डे
- 06 - पतझड़ से किनारा
- 07 - मिसेज़ खान का संघर्ष
- 08 - शिशुपालन कक्षाएँ
- 09 - वह लाल गुलाबी मुखड़ेवाली
- 10 - पूरी-अधूरी रेखाएँ
- 11 - अली इस्माएल अब्बास
- 12 - दर्पण
- 13 - फूल सा फ़रिश्ता
- 14 - स्वागत की वे लड़ियाँ
- 15 - नाट्य उत्सव “अरंगेत्रम”
- 16 - परम्पराएँ
- 17 - मातृत्व की पुकार
- 18 - विकास की सीढ़ियाँ
- 19 - कनेडियन माली
- 20 - छुट्टी का आनंद
- 21 - ट्यूलिप उत्सव
- 22 - किंग
- 23 - अनोखी बच्चा पार्टी
- 24 - शावर पर शावर
- 25 - पितृ दिवस
- 26 - अबूझ पहेली
- 27 - दर्द के तेवर
- 28 - विदेशी बहू
- 29 - फिलीपी झील
- 30 - म्यूज़िक सिस्टम
- 31 - अपनी भाषा अपने रंग
- 32 - न्यूयोर्क की सैर भाग- 1
- 33 - न्यूयार्क की सैर भाग-2
- 34 - न्यूयार्क की सैर भाग - 3
- 35 - न्यूयार्क की सैर भाग - 4
- 36 - शिशुओं की मेल मुलाक़ात
- 37 - अब तो जाना है
- 38 - साहित्य चर्चा
- 39 - चित्रकार का आकाश
- 40 - काव्य गोष्ठी
- लोक कथा
- विडियो
-
- ऑडियो
-