31 - अपनी भाषा अपने रंग
सुधा भार्गव20 जुलाई 2003
अपनी भाषा अपने रंग
पिछले माह डॉक्टर भागीरथ ने आकर हमें बहुत प्रभावित कर दिया था बहुत से कवियों और लेखकों के नाम गिनाकर। साथ ही वायदा भी किया कि आगामी कवि सम्मेलन में मुझे अवश्य बुलाकर ओटावा की कवि मंडली से मेरा परिचय कराएँगे। साथ ही कविता पाठ करने का मौक़ा देंगे। सुनते ही हम तो गदगद हो गए और अपना कविता संग्रह "रोशनी की तलाश में" तुरंत उन्हें भेंट में दिया। कुछ ज़्यादा ही मीठी ज़ुबान में उनसे बातें करते रहे जब तक वे हमारे घर रहे। बड़ी ही बेसब्री से इनके आमंत्रण की प्रतीक्षा करने लगे पर वह दिन आया कभी नहीं। एक लंबी सी साँस खींचकर रह गए।
कल ही पाटिल दंपति आए। ललिता पाटिल बहू की अंतरंग सहेली है। उससे पता लगा कि 28 जून को तो वह कवि सम्मेलन हो भी चुका है जिसकी चर्चा मि. भागीरथ ने की थी। उस कवि सम्मेलन के संगठनकर्ता पूरा तरह से वे ही थे। अब हम क्या करते? हाथ ही मलते रह गए। लेकिन हमसे इतनी नाराज़गी! कारण कुछ समझ नहीं आया। कम से कम सूचना तो दे देते। हम इंतज़ार की घड़ी में पेंडुलम की भाँति लटकते तो न रहते।
पाटिल दंपति ओटावा में 25-30 वर्षों से हैं। पर कनेडियन छाप एकदम नहीं लगी है। अनिता पाटिल पटना की रहने वाली हैं और शिक्षा–दीक्षा भी पटना में ही हुई। हमारी बहू भी पटना मेँ रह चुकी है। तभी दोनों बिहारी बोल रहे थे तो कभी हिन्दी मेँ बोलते। मज़े की बात कि मि. पाटिल भी इटावा (यू.पी.) के रहने वाले निकल आए। वे उसी मोहल्ले में रहते थे जहाँ भार्गव जी का ठौर-ठिकाना था। फिर तो बातों का बाज़ार ऐसा गरम हुआ कि आश्चर्य ही होता था। सच दुनिया बहुत छोटी हो गई है। कब कौन कहाँ मिल जाए पता नहीं! सद्व्यवहार से हर जगह एक प्यारी-न्यारी छोटी सी दुनिया बस सकती है।
अनिता और रमेश दोनों ही मिलनसार शाकाहारी व हिन्दी प्रेमी हैं पर इनके इकलौते शाहज़ादे एकदम विपरीत। मांसाहारी, हिन्दी के नाम नाक-भौं सिकोड़ने वाले अँग्रेज़ी मेँ गिटपिट करते हुए अंग्रेज़ों की दम। स्वभाव में इतनी भिन्नता! समझ न सकी ग़लती कहाँ हुई है पर ग़लती हुई तो है। दूसरी भाषाएँ बोलना और सीखना तो सहृदयता की निशानी है पर मातृ भाषा को नकारते हुए उसका अपमान करना अपनी जड़ों पर कुल्हाड़ी मारने के समान है।
वैसे ग़लती तो माँ-बाप की ही मानी जाएगी। दादी-बाबा बनने पर उन्हें अपनी भूल का एहसास ज़रूर होगा जब नाती-पोते पूरे परिवेश को ही बादल कर रख देंगे। रीति-रिवाज, विचार व संस्कारों की भूल-भुलैया में ये दादी-बाबा शतरंज के पिटे मोहरे बनकर रह जाएँगे।
मुझे बार बार अपनी सहेली डॉ. कुलकर्णी के शब्द याद आ रहे हैं जो कनाडा बस गई है – "सुधा पहले तो हम इंगलिश बोलने में गर्व का अनुभव करते रहे। जब अपनी ग़लती का अहसास हुआ तो बहुत देर हो चुकी थी। हम तो अपनी पहचान ही खो बैठे हैं। न कनेडियन रहे और न भारतीय।"
सच पूछो तो मैं अपनी पोती को लेकर चिंतित हो उठी हूँ। अगर वह भी अँग्रेज़ी मेँ गिटगिट गिटर-गिटर करने लगी मेरा क्या होगा! मैं तो अपनों के बीच में ही पराई हो जाऊँगी। जो दिल और मन का तालमतेल अपनी भाषा में बैठता है वह पराई भाषा में कहाँ! पर ऐसा होगा नहीं। उसकी मम्मी घर में हिन्दी ही बोलती है और उसकी हिन्दी तो उसके पापा से भी अच्छी है। मम्मी जब इतनी सजग है तो वह अपनी दादी माँ से हिन्दी में ज़रूर बोलेगी। मेरे पास आएगी, मेरे साथ बतियायेगी। मैं वारी जाऊँ। फिर तो उसे मैं अपने एक-दो काम भी गिना दूँगी। कभी मेरा चश्मा दूँढ़ कर लाएगी तो कभी मेरी छड़ी। और मैं... मैं फूल सी खिली सौ बरस जीऊँगी।