37 - अब तो जाना है
सुधा भार्गवअब तो जाना है
20 अगस्त 2003
समय बीतते देर नहीं लगती। एक दिन वह था जब हम यहाँ आए–आए थे। कुछ दिनों तक तो बेटे की मित्रमंडली से भोज का निमंत्रण मिलता ही रहता था। स्वागत में वे आँखें बिछा देते। बेटे के दोस्तों का अनुराग देख हम उनकी प्रशंसा किए बिना न रहे। वे मेरे बच्चों के समान ही हैं। मैं भी जब उनसे मिलने जाती एक न एक अपने हाथ से व्यंजन बनाकर उनके लिए ले जाती।
अब फिर से जल्दी-जल्दी भोज के लिए हम आमंत्रित किए जा रहे हैं। पर पहले जैसा उत्साह नहीं है। हमें लगता है लास्ट सपर हो रहा है। लौटते समय दर्द की हूक छिपाकर लाते हैं। उनके प्यार में डुबकियाँ भी लगाना अच्छा लगता है। बस एक ही अफ़सोस रहा- यहाँ पाँच माह रही पर किसी के लिए कोई भी पेंटिंग नहीं बना पाई। भारत से कुछ कलात्मक चीज़ें भी नहीं लाई कि उन्हें उपहार स्वरूप दे पाती। सभी तो भारतीय हस्तकलाओं व दस्तकारी के प्रेमी निकले।
इस मित्रमंडली के ज़्यादातर युवक आई.आई.टी. के छात्र रह चुके हैं। कोई मद्रासी है तो कोई बंगाली, कोई गुजराती है तो कोई मारवाड़ी। पर अपनी संस्कृति व भाषा की पूरी तरह रक्षा किए हुए हैं। पिछली बार मैं सौम्य चटर्जी के गई थी। वह बंगाली में बातें कर रहा था। हम लोग अनेक वर्ष कलकत्ता रहे, बंगाली भाषा भी जानते हैं सो खूब पट रही थे। इतने में उसका दो वर्षीय लड़का बाबुली आँखें मलते हुए आया और अपने पापा की गोद में बैठ करने लगा बंगाली में ही बातें। मैं हैरान बोली, “अरे यह तो ख़ूब अच्छी बंगाली बोलता है।”
“हाँ आंटी, घर में हम इससे बंगाली में ही बोलते हैं। वरना अपनी भाषा कैसे सीखेगा? अँग्रेज़ी के लिए मोंटेसरी ही बहुत।”
“तुम एकदम ठीक कह रहे हो,” मेरी आँखें मुसकाती उसकी तारीफ़ कर रही थीं।
“आंटी, इससे मिलिए –यह तारक है। अगले माह भारत लौट रहा है। रात–दिन इसे अपनी माँ की याद सताती है।”
“सच में तारक तुम जा रहे हो – वह भी अपनी माँ के कारण?” मेरे कान सुनी बात पर विश्वास न कर सके।
“हाँ जी। बहुत पैसा कमा लिया। पैसा ही तो सब कुछ नहीं, मेरे माँ-बाप, मेरा देश मुझे बुला रहा है। अपने हुनर से अपने देश को बढ़ाऊँगा। पैसा तो कहीं भी कमा लूँगा। 10 नहीं तो 8 ही सही। भारत भी अब किसी से कम नहीं।”
इतना आत्मविश्वास! आत्मसम्मान से सिर ऊँचा करके जीने की इतनी चाहत! इन नवयुवकों पर मुझे गर्व हो आया।
भारत जाने के अब कुछ ही दिन शेष हैं। उन्हें अपनी उँगली पर गिनने लगी हूँ- एक-दो-तीन...। मन करता है चाँद मेरे सामने ही बैठा घूमता रहे ताकि उसे देख सकूँ ताकि अलगाव की कसक अभी से न घायल करने लगे। पोती को कसकर छाती से लगा लेती हूँ। सुना है स्पर्श में भावों के स्पंदन की अटूट शक्ति है। एक साल के बाद बहू-बेटे का भारत आने का प्रोग्राम है। क्या वह मुझे याद रख पाएगी? कोई उसे मेरी याद दिलाएगा भी या नहीं। बस ऐसी ही उलझनों में उलझ कर रह जाती हूँ।
आज मैंने काफ़ी सामान बाँध लिया है। कुछ अपने लिए कुछ बड़ी बहू व बेटी के लिए। लगता है सब समान मैं ही रख लूँ। इसलिए नहीं कि मुझे चाहिए बल्कि इस लिए कि वह सब मेरे बेटे की कमाई का है। भूल जाती हूँ कि मेरे बेटे-बेटी उसके भाई-बहन भी हैं। मैं –मेरे के चक्कर में माँ होकर भी कभी-कभी इतनी स्वार्थी कैसे हो जाती हूँ—बड़ा ताज्जुब होता है।
आजकल मेरे ख़्यालों में बेटा चाँद ही समाया रहता है। कभी-कभी चुपके से आकर गंभीरता से पूछता, “माँ यहाँ ख़ुश तो रहीं। मुझसे या शीतल से कोई ग़लती तो नहीं हुई। ग़लती हो जाय तो बता देना –रहूँगा तो तुम्हारा छोटा बच्चा ही।”
जी भर आता –बोलते कुछ न बनता... बस उसके सिर पर हाथ फेरने लगती।
चाँद सामान तौलता तो छाती फटती है—30-30 किलो की बड़ी-बड़ी अटैचियाँ! दिल्ली से जब चली थीं तो सोचा था भविष्य में कभी इतना समान लेकर नहीं चलूँगी। मगर बच्चों के मोह और मृग मारीचिका की जकड़न ने फिर अति का समान इकट्ठा कर लिया। चाहती थी खाने का सामान वज़न के अनुसार सबसे बाद में ख़रीदूँगी। मगर शीतल ने मनपसंद बिस्कुट, स्विस केक, मुच्छी चिप्स, बादाम-पिस्ते न जाने क्या-क्या ख़रीद लिया। ऐसा लग रहा है मानो मैं माँ के घर से विदा होकर जा रही हूँ।
पैकिंग के बाद चाँद बोला- माँ अभी जगह है, चलो बाक़ी का समान ख़रीद कर ले आते हैं। चुटकियों में तैयार हो उसकी कार में जा बैठे और टोयटा केम्री शीघ्र ही हवा से बातें करने लगी। उसने बड़े चाव से अपने जीजाजी के लिए राई वाइन और वाइन ग्लास ख़रीदे। कॉफ़ी का बड़ा सा मग हाथ में लिए जल्दी ही लौट आए।
मेरे पास स्मृति वस्तुओं (souvenir collection) का अच्छा ख़ासा संग्रह हो गया है। जहाँ भी जाती हूँ यादगार के तौर पर एक चीज़ ज़रूर ले लेती हूँ । प्रीति उपहार भी बहुत आकर्षक हैं। विचारों के फंदे तो हमेशा से समय की सलाइयाँ बुनती चली आई हैं सो एक फंदा और तैयार होने लगा है - "जिस प्यार व चाव से गिफ़्ट दिये गए हैं और स्मृति पदार्थ खरीदे हैं, उन्हें शौक़ से अपने घर में सजाऊँगी।"
26 जनवरी को अवनि के नाना-नानी एडमिंटन से आने वाले हैं। इसलिए आज ही ऊपर का कमरा छोड़कर नीचे सामान ले आए। सोने ऊपर ही चले जाते हैं पर 26 तारीख़ से दूसरे कमरे में सोना पड़ेगा। दो दिन की ही तो बात है फिर तो भारत चले ही जाएँगे। चार दिन को आए पर ऊपर वाला कमरा अपना लगने लगा। उसे छोड़ते समय मन खिन्न था। सच कहूँ –मैंने महसूस किया कि अधिकार खोना कितना ख़राब लगता है! भूल गई कि परिवर्तन प्रकृति का नियम है। थोड़ी देर के लिए अतीत की भूलभुलैया में खो गई।
फरीदाबाद में माँ छोटे भाई के साथ रहती थी। उनका कमरा अलग व आधुनिक उपकरणों से सुसज्जित था। ज़्यादातर मैं कलकत्ते से आकर उन्हीं के पास सोती थी, उनका ज़्यादा से ज़्यादा साथ चाहती थी। बदक़िस्मती से हार्ट अटैक के कारण उनकी अचानक मृत्यु हो गईं। अंतिम क्रिया के बाद दुबारा भाई से मिलने गई। चुंबक की तरह पैर माँ के कमरे की ओर बढ़ गए। सोचा-माँ नहीं तो क्या हुआ!अलमारी में टँगे उनके कपड़े, मेज़ पर रखी दवाइयाँ, पूजा की माला देखकर ही संतुष्ट हो जाऊँगी। उनकी उपस्थिति का कुछ तो अहसास होगा। पर यह क्या! दरवाज़े पर पैर रखते ही बिजली का झटका सा लगा- जो दिखाई दे रहा था उस पर विश्वास करना मेरे बूते के बाहर था। वह कमरा भतीजे-भतीजी का अध्ययन कक्ष बन गया था। माँ का नामोनिशान मिट चुका था। इस बदलाव को न मन मानने को तैयार था न आँखें ही अभ्यस्त थीं। तभी विवेक ने सिर उठाया- जो आया है वह जाएगा ही और उसके जाने के बाद अन्य उसकी जगह लेगा— यह तो प्रकृति का नियम है। इस कमरे में रहने वाली तुम्हारी माँ थी, अब भी रहने वाले तुम्हारे ही हैं। यहाँ तो अन्य कोई है ही नहीं फिर शिकवा-गिला कैसा! इस सोच ने मुझे स्थिरता दी, तब कहीं जाकर चित्त शांत हुआ।
- क्रमश:
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