33 - न्यूयार्क की सैर भाग-2

01-06-2019

33 - न्यूयार्क की सैर भाग-2

सुधा भार्गव

25 जुलाई 2003

न्यूयोर्क की सैर

मैनहट्टन माल और 5थ एवेन्यू

यह मॉल हमें ज़रूर देखना था। इसके अलावा कोई भी विदेश यात्रा पर जाता है उसे स्वादिष्ट भोजन करने और ख़रीदारी का मोह तो सताता ही है। इसलिए हम एम्पायर स्टेट बिल्डिंग से खिसकने लगे। थोड़ी दूर चलकर हमने 5थ एवेन्यू में प्रवेश किया। यह टाइम्स स्कायर(Business improvement District) का एक हिस्सा है। यहाँ एक समय टाइम्स अख़बार का ऑफ़िस था, उसी के नाम पर इस स्थल का नामकरण हुआ। विश्व का जाना -माना मॉल मैनहट्टन (Manhattan) मॉल यहीं पर है। मॉल में दुकानों का आकार सच में दैत्य समान था। खिलौनों के ताजमहल सी दुकान पर तो मनुष्य के आकार के स्टफ्ड जानवर, बच्चों के आकार की स्पोर्ट्स कार थीं। दाम भी बड़े-बड़े थे पर शान ग़ज़ब की थी। पास में ही विस्तृत मैनसीज स्टोर में रखे बैग, पर्स की चमक अपनी ओर खींच रही थी। लैगोशॉप पर भी दृष्टि पड़ी। मानव आकार की बनी ‘स्टेच्यू ऑफ़ लिबर्टी’ को विस्फारित नेत्रों से हम देखते रहे। 

शाकाहारी लोगों को मनपसंद भोजन विदेशी धरा पर कठिनाई से ही मिलता है। मुझे और मेरे श्रीमान जी को सोचने में आधा घंटा लग गया कि क्या खाएँ क्या न खाएँ? मांसाहारी तो जल्दी से चिकिन और वाइन लेकर बैठ गए। जैसे–तैसे हमने शाकाहारी पीत्ज़ा, कोककोला, पोपकोर्न लिए। उन्हें गटक तो गए पर तृप्ति न हुई। हाँ! टॉफियाँ–पेस्ट्री और आइसक्रीम की भरमार थी। जहाँ मौक़ा मिलता खाने से उन्हें बाज न आते। 

5थ एवेन्यू के पास में ‘ब्रॉडवे टिकिट सेंटर’ (Broadway ticket centre) है। वहाँ पर मामा मिया (Mama Mia) द लॉइन किंग, कैबरे (cabaret) शो के टिकट मिल रहे थे पर ख़रीदने वालों की बड़ी सी  लाइन थी। कोई मामा मिया देखना चाहता था क्योंकि उसका संगीत–गाने लाजबाव हैं तो कोई द लॉइन किंग में दिलचस्पी दिखा रहा था क्योंकि उसमें इंसान मास्क लगाकर ख़ुद अफ़्रीकन जानवर बन अपनी अद्भुत मुद्राओं से हलचल पैदा कर देते हैं। मन तो कर रहा था सब ही देख लें पर समय और पैसे की सीमा थी। 

एक बार तो हम पति-पत्नी ने थिएटर देखने का इरादा ही छोड़ दिया क्योंकि एक व्यक्ति का टिकट क़रीब  44अमेरिकन डॉलर था। परंतु उस दिन 50% कम में टिकिट उपलब्ध था सो हमने हिम्मत जुटा ली। यह भी सोचा –जब ओखल में सिर दिया तो डरने से क्या लाभ! ज़्यादा से ज़्यादा ख़रीदारी नहीं करेंगे। आख़िर में 26 जुलाई के ‘कैबरे शो’ के टिकिट खरीद लिए। यह शो ‘राउंड एबाऊट थियेटर कंपनी’ (Round About Theatre Company) की तरफ़ से स्टूडिओ 54 में प्रस्तुत किया गया था।  थियेटर शो के टिकिट तो हमने सुबह 12 बजे तक खरीद लिए थे। मगर टिकट 26 तारीख का था इसलिए कल तो यहाँ आना ही था। 

बिना समय खराब किए हमारी बस रॉक फैलर सैंटर, ग्रीनविच विलेज होती हुई ‘मिड टाउन मैनहट्टन सीपोर्ट’ (south street sea port) की ओर चल दी। मैनहट्टन अपने आप में एक छोटा सा टाउन है। पर देखने लायक़ है। इसमें करीब 100 दुकानें हैं। कैफ़े –रेस्टोरेण्ट की तो भरमार है। अपनी पोकिट के हिसाब से दूसरों के लिए आकर्षक उपहार मिल ही जाता है। खाओ-पीओ–मौज उड़ाओ उसी में कहो तो घंटों गुज़र जाएँ। 

एयर स्पेस लिविंग म्यूज़ियम को देखने का समय न मिल सका। मेरीटाइम म्यूज़ियम (मैरिटाइम म्यूज़ियम ) में  युद्ध के समय क्षतिग्रस्त जहाज़ों को उचित देखरेख में रख छोड़ा है। बड़े-बड़े जहाज़ के मॉडल व उनकी आर्टिस्ट की पेंटिंग्स को देख मैं तो अचरज में पड़ गई। यहाँ के निवासियों को अपने अतीत से प्यार है और भविष्य सुनहरा बनाने के लिए राष्ट्रीय भावना में पगे भागे चले जा रहे हैं। 

समुद्र में खड़े माल ढोने वाले पोत, भ्रमण हेतु जहाज़ी बेड़े, आनंददायक समुद्री यात्रा वाले यान। छोटे-बड़े, सुंदर –विकराल सभी मिलकर आश्चर्यजनक दृश्य उपस्थित कर रहे थे। कुछ सुसज्जित यानों में रात्रि भोजन का प्रबंध था और उन क्षणों को मन मोहक बनाने के लिए विशेष शराब की व्यवस्था थी।  

‘रॉक फैलरसैंटर एवेन्यू’ भी बहुत प्रसिद्ध है। ख़रीदारी का तो यहाँ अंत ही नहीं। चहलक़दमी करते हुए नाईक टाउन और वॉल्ट डिज़नी में हमने क़दम रखे। खिलौनों के साम्राज्य में प्रवेश करते ही हमारी तो दुनिया ही बदल गई।  खिलौनों का तो यहाँ ताजमहल है। जानवरों के पूर्ण आकार के बराबर स्टफ जानवर हैं। बच्चों बराबर की स्पोर्ट्स कार हैं। यहाँ एक फोर्मर मूवी पैलेस है जिसमें करीब 6000 सीटस हैं। जिसका अपना महत्व है।

खिलौनों की दुनिया से निकल हम ‘ग्रीन विच विलेज’ पहुँचे। यह चित्रकला प्रेमियों की बस्ती है। सोहो आर्ट गैलेरी तो अद्भुत आर्ट का खजाना है। पर उसे अंदर से नहीं देख पाए। इसका बहुत अफ़सोस रहा । बाहर से ही गैलरी के अनदेखे विश्व प्रसिद्ध चित्रांकन को शीश झुकाया। कई कलाकारों के निवासस्थान भी वहीं थे जो पर्यटकों के देखने के लिए खुले थे। पर हमारा ऐसा भाग्य कहाँ! कुछ युवकों की अंधाधुंध ख़रीदारी हमें ले डूबी। असल में अधिकांश पर्यटक ख़रीदारी में ही दिलचस्पी ले रहे थे। एक सज्जन और उनकी पत्नी भारत से केवल एक बैग लेकर आए और वहाँ दो बड़ी-बड़ी अटैचियाँ ख़रीदीं  जिन्हें भरना शुरू कर दिया। लगता था मानो बेटी के लिए पूरा दहेज़ तैयार कर रहे हों। इस मनोवृति के कारण गाइड को इतना समय न मिला कि वह आर्ट गैलरी दिखा  सके। हम जैसे कलाप्रेमी तो मन मारकर रह गए। मशहूर लैंडमार्क देखने ही तो हम  मीलों उड़कर आए थे और ऐतिहासिक तथ्यों की जानकारी के लिए गाइड से प्रश्न पर प्रश्न करते रहते थे। ख़रीदारी और सामान ढोने मेँ कोई रुचि न थी। वैसे  चीन का बना समान वहाँ सस्ता था, पर चायना छाप तो सब जगह मिलता है।  

उस विलेज में मनमौजी चित्रकार जगह-जगह छोटी-छोटी बैंच या स्टूल लिए बैठे थे। उनके एक ओर पेपर पेंटिंग्स लटक रही थी दूसरी ओर ज़मीन पर रंग मुसकाते हुये बैठे थे। लगता था जहाँ ये बिखर जाएँगे वहीं अपनी मुस्कान फैला देंगे। हुआ भी यही! चित्रकार 20 मिनट में ही किसी का चित्र बना देता तो लगता आकृति अभी बोल उठेगी। पेड़-पौधे बनाकर रंग भरता तो प्रकृति विहँसने लगती। अपनी तूलिका से बेजान काग़ज़ में जान डालकर कलाकारों ने हमें चकित कर दिया। उनको अपनी स्मृतियों में बसाकर चल दिए । 

- क्रमश : 
 

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

डायरी
लोक कथा
विडियो
ऑडियो

विशेषांक में