थोड़ी-सी रौशनी

01-12-2025

थोड़ी-सी रौशनी

अमित राज श्रीवास्तव 'अर्श’ (अंक: 289, दिसंबर प्रथम, 2025 में प्रकाशित)

 

पलकों पर ठहरी नमी
अब शब्द नहीं खोजती, 
बस रिसती है
अनकहे अपराध-भाव की तरह। 
 
भीतर का शोर
इतना भारी हो गया है
कि मौन भी
टूटकर गिरता है
चूर-चूर। 
 
फ़िलहाल, 
सिर्फ़ यही होता है—
भीतर की अँधेरी जगहों में
थोड़ी-सी रौशनी रिसती है, 
और मैं चुपचाप उसे
आँखों तक आने देता हूँ। 

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