थोड़ी-सी रौशनी
अमित राज श्रीवास्तव 'अर्श’
पलकों पर ठहरी नमी
अब शब्द नहीं खोजती,
बस रिसती है
अनकहे अपराध-भाव की तरह।
भीतर का शोर
इतना भारी हो गया है
कि मौन भी
टूटकर गिरता है
चूर-चूर।
फ़िलहाल,
सिर्फ़ यही होता है—
भीतर की अँधेरी जगहों में
थोड़ी-सी रौशनी रिसती है,
और मैं चुपचाप उसे
आँखों तक आने देता हूँ।
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