शून्य की परिधि पर प्रेम
अमित राज श्रीवास्तव 'अर्श’
शून्य की निस्तब्ध परिधि पर,
जहाँ समय अपनी गति खो देता है,
वहाँ एक स्पंदन शेष रहता है—
न अदृश्य, न दृश्य—
बस अनुभूत।
जहाँ शब्द अपने आप थम जाते हैं,
और मौन
अपने सबसे मुखर रूप में गूँजता है,
वहीं प्रेम जन्म लेता है—
न याचना में,
न अधिकार में,
बल्कि समर्पण के अद्वितीय क्षण में।
यह वह बिंदु है
जहाँ आकांक्षाएँ भस्म हो चुकी होती हैं,
जहाँ आत्मा अपनी त्वचा उतार चुकी होती है,
और अस्तित्व केवल एक स्पंदन रह जाता है—
जो मुझमें है, पर मेरा नहीं।
प्रेम, जो न प्रारंभ माँगता है,
न अंत स्वीकारता है,
वह परिधि पर नहीं ठहरता—
वह परिधि बन जाता है।
जहाँ सब कुछ निष्प्रभ हो जाए,
वहाँ प्रेम स्वयं प्रकाश बनकर उभरता है,
न किसी देवता से माँगा गया,
न किसी कविता में बाँधा गया—
बस स्वयं में पूर्ण।
और मैं वहाँ खड़ा हूँ,
प्रलय के अंतिम सन्नाटे में,
हाथ फैलाए नहीं,
हाथ समेटे हुए—
क्योंकि जिसे पाया है वहाँ,
वह मेरा नहीं,
मैं उसका हूँ।
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