एक और अर्थ

01-12-2025

एक और अर्थ

अमित राज श्रीवास्तव 'अर्श’ (अंक: 289, दिसंबर प्रथम, 2025 में प्रकाशित)

 

कभी-कभी
एक स्मृति
अपना चेहरा उतारकर
हमारी तरफ़ रख देती है, 
और हम समझते हैं
ये हम हैं। 
पर वो हम नहीं—
हमारी सम्भावना होती है, 
जो किसी पुराने क्षण में
जीना भूल गई थी। 
 
बर्बादी? 
वह तो एक अफ़वाह है—
जिसे टूटे हुए अहसास
एक-दूसरे को सुनाते रहते हैं
ताकि उन्हें लगे
कुछ निर्णायक घट चुका है। 
हालाँकि
निर्णायक वही होता है
जो घटता नहीं, 
बस मनुष्य के भीतर
अपनी घोषणा टाँग देता है
और किसी पुष्टि का इंतज़ार नहीं करता। 
 
ये जो जाने वाले लोग होते हैं—
वह जाते नहीं, 
बस दृश्य से
अपना “व्यवहार” उठाकर ले जाते हैं, 
अस्तित्व वहीं छोड़ जाते हैं। 
जो बचता है, 
वह इतना पतला, इतना महीन, 
कि उँगली से छुओ
तो लगता है
साँस को छुआ है। 
 
और हम? 
हम एक लंबे गलियारे में
चलते रहते हैं
जहाँ हर मोड़ पर
हमारे पिछले क़दमों की प्रतिध्वनियाँ
हमारे भविष्य का
भेजा हुआ संदेश लगती हैं। 
कौन जानता है
कौन-सा क़दम
किस भाषा में लिखा गया था? 
 
आख़िर में
जो भी समझ आता है—
उसके ठीक किनारे
एक और अर्थ पड़ा होता है
जो हमें देख रहा होता है, 
और मुस्कुरा रहा होता है, 
जैसे कह रहा हो:
“तुम अभी वहाँ तक पहुँचे ही कहाँ।” 

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