खोया खोया सा रहता हूँ

01-03-2021

खोया खोया सा रहता हूँ

अंकुर सिंह (अंक: 176, मार्च प्रथम, 2021 में प्रकाशित)

आजकल जीवन बड़ा मुझको,
अकेला अकेला सा लगता है।
तुम्हारे साथ ना होने से,
जीवन ख़ाली ख़ाली सा लगता है॥
 
जब जब तन्हा होता हूँ मैं,
तुझ बिन बैचैन सा रोता हूँ मैं।
बन्द आँखों से देख तुम्हें मैं,
तुममें खोया सा रहता हूँ मैं॥
 
बिन तुम इस जीवन में,
अकेला अकेला सा रहता हूँ।
किसे बताऊँ मन की व्यथा,
ख़ुद में खोया खोया सा रहता हूँ॥
 
कमी खलती है मुझको भी तेरी
दूर रहकर उर में बसती तू मेरी।
कैसे करूँ तुम बिन मैं कल्पना,
मैं पतंग और तुम हो डोरी मेरी॥
 
भले दूर हो तुम आज मुझसे,
देखता मैं तुम्हें बन्द चक्षु से।
रहती तुम आज बड़े महलों में,
हर पल पाता तुझको मैं दिल से॥
 
पपीहा तड़पे स्वाति नक्षत्र को,
मैं भटकूँ तुमसे मिलन को।
आजकल खोया खोया सा रहता हूँ,
जन जन में निहारूँ मैं तुझको॥
 
एक बार तू ज़रा लौट के आ,
मुझको नींद की थपकी दे जा।
इस भोले भाले मेरे दिल को,
अपने घर का पता बता जा॥
 
तुम बिन ख़ाली ख़ाली सा लगता हूँ,
तुम बिन तड़प तड़प कर जीता हूँ।
प्रेम मिलन के बगिया में आ जा प्रिया,
तुम बिन खोया खोया सा रहता हूँ॥

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