कलयुगी विभीषण
अंकुर सिंह
प्रेम बाबू का बड़ा बेटा हरिनाथ शहर में अफ़सर के पद पर तो छोटा बेटा रामनाथ सामाजिक कार्यों से अपने कुल परिवार की प्रतिष्ठा बढ़ा रहा था। पुरानी ज़मींदारी के नाते, क्षेत्र में उनके परिवार का रुत्बा भी ख़ूब था। प्रेम बाबू की अकूत सम्पत्ति और उनके परिवार की एकता से उनके विरोधी ख़ूब ईर्ष्या करते और अक़्सर उनके परिवार में फूट डालने की योजना बनाते और हर बार नाकामयाब भी रहते।
प्रेम बाबू के स्वर्गवास के बाद, आये दिन उनके दोनों बेटों में छोटी-छोटी बातों पर कहासुनी और मनमुटाव-सा होने लगा, जिसकी भनक प्रेम बाबू के विरोधियों को लगी। उनके विरोधी इस मनमुटाव को उचित अवसर में तब्दील करने के लिए दोनों भाइयों के बीच फूट डालने की योजना में लग गए।
चूँकि, हरिनाथ नौकरी के कारण ज़्यादातर शहर में रहते थे और गाँव के माहौल से उतनी अच्छी तरह से वाक़िफ़ नहीं थे। हरिनाथ की इसी कमज़ोरी का फ़ायदा उठा प्रेम बाबू के विरोधी, उन्हें रामनाथ के ख़िलाफ़ भड़काने लगे और हर छोटी-मोटी बातों पर कोर्ट-कचहरी जाने के लिए उकसाने लगे। हरिनाथ को भी उनकी बातें प्रिय लगने लगीं और वह हर मामले में रामनाथ को कोर्ट-कचहरी में घसीटने लगा। हरिनाथ के इस कृत्य पर उसके परिवार और रिश्तेदारों ने ख़ूब समझाया पर हरिनाथ ने उनकी बातें दरकिनार करते हुए अपना ये कृत्य बरक़रार रखा।
एक पुरानी कहावत है कि, “जिस घर के सदस्यों को अपनों से ज़्यादा बाहरी प्रिय लगने लगें, समझ लेना उस घर की बर्बादी निश्चित है।” यहाँ भी ये कहावत चरितार्थ हुई। पहले जो लोग हरीनाथ को रामनाथ के ख़िलाफ़ भड़काते थे अब वही लोग धीरे-धीरे प्रेम बाबू की सम्पत्ति को हड़पने लगे। रामनाथ जब विरोध करता तो उसके विपक्षी कहते, “यह हमारे दोस्त हरिनाथ की भी सम्पत्ति है, अकेले तुम्हारी नहीं है।”
हरिनाथ भी लोगों के ख़ास बनने के चक्कर में चुप्पी साधे अपनी पैतृक सम्पत्ति गँवाता रहा और प्रेमबाबू के विरोधी उनके बेटों के इन झगड़ों का लाभ उठाकर उनकी सम्पत्तियों पर क़ब्ज़ा करते रहे। उधर प्रेमबाबू के दोनों बेटे सुकून और सम्मान की ज़िन्दगी छोड़, आए दिन कोर्ट-कचहरी के चक्कर लगाने लगे।
एक दिन सब कुछ गँवा देने के बाद हरिनाथ को भी ठगे जाने का अहसास हुआ और उसने एक रिश्तेदार से कहा, “मुझे आज महसूस हो रहा है कि विरोधियों के बहकावे में आकर मैंने बाबू जी (प्रेमबाबू) के सम्मान और सम्पत्ति को मिट्टी में मिला दिया।”
“हरि, हम तो शुरू में ही कृष्ण बनके संधि का पैग़ाम लाये थे जिससे तुम दोनों भाइयों में महाभारत जैसी कोई अप्रिय घटना ना हो। परन्तु, उस समय तुमने कलयुगी विभीषण बनके राम (रामनाथ) का साथ नहीं बल्कि रावण जैसे प्रेम बाबू के विरोधियों का साथ चुना,” हरिनाथ के रिश्तेदार ने उसके कंधे पर हाथ रखते हुए कहा।
हरिनाथ ने भी अपने किये पर पछतावा हुआ और उसने अगली सुबह गिले-शिकवे भुलाकर अपने भाई रामनाथ को गले लगाने का निश्चय किया।
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