कश्मीर फ़ाइल्स: मेरे दृष्टिकोण से फ़िल्म की समीक्षा

01-04-2022

कश्मीर फ़ाइल्स: मेरे दृष्टिकोण से फ़िल्म की समीक्षा

शैली (अंक: 202, अप्रैल प्रथम, 2022 में प्रकाशित)

कश्मीर फ़ाइल्स एक फ़िल्म नहीं दर्द, दुःख अत्याचार की ऐसी काँटों भरी राह है जिस पर चलते हुए, काँटे दर्शकों को चुभते ही नहीं लहू-लुहान भी करते हैं। इसे देखते हुए हम मन को यह तसल्ली भी नहीं दे सकते कि यह कहानी है, क्योंकि यह शतप्रतिशत सच्चाई है। इसलिये सिनेमा हॉल में शायद ही कोई ऐसा रहा होगा जिसकी आँखें इसे देख कर नम नहीं हुई होगी। 

फ़िल्म के मुख्य कलाकार पंडित पुष्करनाथ, उनकी पुत्र वधू शारदा और उनके दो पौत्र शिवा और कृष्णा हैं। इस परिवार के माध्यम से कश्मीरियों का दुःख, भय, असुरक्षा और आतंक दिखाया गया है। राजनीतिक, सामाजिक और मीडिया के परिदृश्य को बताने के लिए महेश कुमार–एक डॉक्टर, विष्णु राम–एक पत्रकार और हरि नारायण–डी.जी.पी. हैं। 

ए ऐन यू की प्रोफ़ेसर राधिका मेनन को निवेदिता मेनन (वास्तविक नाम, जे ऐन यू) के चरित्र में दिखाया गया है, कृष्णा, सम्भवतः कन्हैया कुमार का प्रतिनिधित्व करता है। 

इन सभी चरित्रों के माध्यम से निर्माता ने 1990 में हुई कश्मीरी पण्डितों की हत्या और कश्मीर से उनके निष्कासन को बहुत मार्मिक ढंग से दिखाया है। 

फ़िल्म के कथानक को लिख कर मैं उन लोगों के साथ अन्याय नहीं करना चाहती जिन्होंने अभी यह फ़िल्म नहीं देखी है। 

फ़िल्म से कुछ ऐसे तथ्य सामने आते हैं जो सम्भवतः आम जनता को पता नहीं कि, जिस समय पंडितों का क़त्ल-ए-आम हुआ, वहाँ कोई सरकार नहीं थी! दो दिनों के लिए फ़ारूख़ अब्दुल्ला (मुख्यमंत्री) कश्मीर छोड़ कर छुट्टियाँ बिताने चले गये थे। 

आतंकवादियों ने सेना की यूनीफ़ॉर्म पहन कर पण्डितों की हत्या की थी। 
'मीडिया ने सच्चाई को पूरी तरह से झुठलाया था। 

विवेक अग्निहोत्री ने बहुत संयम से इतने बड़े नरसंहार, बलात्कार और पलायन को दर्शकों तक पहुँचाया है। किसी भी दृश्य में वीभत्सता नहीं है, जबकि वास्तविकता इससे कहीं वीभत्स और जघन्य थी। कहीं भी बिखरी हुई लाशें, सामूहिक बलात्कार या निर्ममता से की जा रही है हत्याओं को नहीं दिखाया है। 

ए ऐन यू का एक-एक दृश्य वैसा ही है, जैसा जे ऐन यू में वास्तव में था, उसकी वीडियोज़ इन्टरनेट पर उपलब्ध हैं। जो लोग पीड़ित थे उनमें से कई आज भी हैं; जिनके अनुभव भी इस समय सोशल मीडिया पर उपलब्ध हैं। फ़िल्म की सच्चाई पर कोई भी उँगली नहीं उठा सकता है। 
फ़िल्म का अन्तिम दृश्य, जिसमें 24 कश्मीरी हिन्दुओं को मारे जाते दिखाया गया है, विवाद का विषय बना हुआ है, पर मेरी दृष्टि से इतने बड़े नरसंहार को 24 पुरुष, महिला और बच्चे को सिर्फ़ गोली से मार कर गिरते हुए दिखाना अति नहीं है। 

विस्थापित पण्डितों के साथ हुए सुनियोजित राजनीतिक षडयंत्र और ज़्यादतियों का सच सामने लाना इस फ़िल्म का उद्देश्य है, जिसमें यह शतप्रतिशत सफल रही है। फ़िल्म का हर पक्ष सशक्त है, पात्रों का अभिनय, सिनेमेटोग्राफी, संवाद, पटकथा। गीतों के लिए फ़िल्म में कोई स्थान नहीं था अतः मात्र एक नज़्म है फ़ैज़ की जिसको ज़िम्मेदारी से प्रस्तुत किया गया है। बैकग्राउंड स्कोर दृश्यों की प्रभावोत्पादकता को बढ़ाता है। निर्देशक ने पूरी गम्भीरता और ज़िम्मेदारी से एक बहुत संवेदनशील सत्य को दर्शकों तक पहुँचाया है। फ़िल्म दर्शनीय है। 

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