जो खाये वो . . .!?!
शैली
आज़ाद उड़ते परिंदों के पर काट देती है,
यह वो बला है जो अच्छे-भले को मार देती है
दिखाती है फरेबी ख़्वाब, दुनिया नौजवानों को
जो काटी नाक जन्नत दिख रहा, सबको बताती है
झेलते ख़ुद चले आये, ब्याह जबसे रचाया है
दिलों के रिस रहे घावों को नज़रों से छिपाती है
ना शौहर ख़ुश ना बीवी और बच्चे मुस्कुराते हैं
हर इक घर में मचे कोहराम पर घूंँघट उढ़ाते हैं
चली आयी रवायत ये मियाँ आदम के अर्से से
ना कोई सीख ली नस्लों ने सब शादी रचाते हैं
ये अहमक़ आज के बन्दे भी शादी ख़ूब करते हैं
काट कर पैर ख़ुद के ख़ुद कुल्हाड़ी हाथ में लेकर
बाद शादी के शौहर और दुलहन ख़ूब रोते हैं
ना मर्ज़ी से मिले सोना ना मस्ती और मनमौजी
यहाँ बैठो यहाँ इस काम की तलवार लटकी है
थे जब तक दोस्त या आशिक़ नशा दिल पर चढ़ा रहता
चढ़े घोड़ी तभी से प्यार के सब नक़्श बिगड़े हैं
सभी शादीशुदा जोड़ों को आए अक़्ल थोड़ी सी
हक़ीक़त शादियों की ये बतायें नस्ल को अगली
तभी सुधरेगी ये दुनिया, लोग ख़ुश रह रहे होंगे
पोल शादी की ग़लती की जो सबके सामने होगी
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