फागुनी बयार: दो रंग 

01-03-2023

फागुनी बयार: दो रंग 

शैली (अंक: 224, मार्च प्रथम, 2023 में प्रकाशित)

 

फागुनी बयार एक दस्तक दे जाती है
भूले से क़िस्सों को ताज़ा कर जाती है, 
 
रेत और माटी से गीला था बचपन जो 
तेल, दूध, उबटन, खटोला बन जाती है, 
 
फागुनी बयार कुछ याद दिला जाती है . . . 
 
चाव भरे गुड़ियों और घर-घर के खेल में 
गुड़िया की चूनर में गोट लगा जाती है, 
 
स्लेट-चाक, तख़्ती, और मिट्टी के बुदके में 
नरकुल और सेठा की क़लम बन जाती है, 
 
फागुनी बयार कुछ याद दिला जाती है . . . 
 
गर्माती धूप में, खेल, हँसी, भाग-दौड़ 
साखियों से मिलने का उत्सव बन जाती है, 
 
गाँव-घर भटकती है, पेड़ पर उलझती है 
खो-खो, कबड्डी, कनकौव बन जाती है, 
 
फागुनी बयार कुछ याद दिला जाती है . . . 
 
नीम, आम, नींबू के फूलों की ख़ुश्बू ले 
सेमल के फूल और चिलबिल बन जाती है, 
 
पूजा की थाली में बेर और बेलपत्र, 
भोले के भाँग की ठंडाई बन जाती है, 
 
फागुनी बयार कुछ याद दिला जाती है . . . 
 
भुने हुए बेसन की सोंधी सुगंध लिये, 
लड्डू, पुए, बर्फी, गुझिया बन जाती है, 
 
मँजीरा, झांझ और ढोलक की थाप पर 
जोगिरा, कबीर, फाग, बिरहा बन जाती है, 
 
फागुनी बयार कुछ याद दिला जाती है . . . 
 
रास-रंग-भंग है, हर मन मलंग है, 
फरुवाही, भांड, नौटंकी बन जाती है, 
 
लाल, बैंजनी, पीले, रंगों को साथ लिए 
गाल पर गुलाल, मस्त होली बन जाती है, 
 
फागुनी बयार कुछ याद दिला जाती है . . . 
 
होली की मस्ती में छोटी सी चिंता बन 
दसवीं के बोर्ड की परीक्षा बन जाती है, 
 
चिड़ियों के चहक और कोयल की कूक सजी 
धूल भरे चैत की, आहट बन जाती है, 
 
फागुनी बयार कुछ याद दिला जाती है . . . 
 
2.
 
शैशव, कैशोर्य और यौवन के साथ-साथ 
छोटे से जीवन की झाँकी बन जाती है, 
 
उम्र को बसंतों में गिनते हैं किन्तु कभी 
फागुन भी यौवन की देहरी बन जाती है, 
 
फागुनी बयार कुछ याद दिला जाती है . . . 
 
गेहूँ की हरियाली, सोने में ढालती ज्यों 
अल्हड़ तरुणाई को दूर ले जाती है, 
 
ढोलक की थाप, गीत, मीठी सी शहनाई 
ब्याह और बिदाई, ससुराल बन जाती है, 
 
फागुनी बयार कुछ याद दिला जाती है . . . 
 
जीवन की चक्की है, नून, तेल, लकड़ी है 
सास, ससुर, पति की मनुहार बन जाती है, 
 
पल-छिन गुज़रते हैं, भूमिका बदलते हैं 
नन्हे से शिशु की किलकारी बन जाती है, 
 
फागुनी बयार कुछ याद दिला जाती है . . . 
 
बच्चों की देखभाल, रात-दिन, दौड़-भाग, 
बाल-सुलभ क्रीड़ा, दुलार बन जाती है, 
 
दिन, माह, साल गए, बच्चों के पाँख लगे 
बाल में सफ़ेदी की बालू बन जाती है, 
 
फागुनी बयार कुछ याद दिला जाती है . . . 
 
फागुन है, होली है, रास है, ठिठोली है 
उम्र की थकान सभी रंग बदल जाती है, 
 
एकाकी, अलसाये जीवन की साँझ में 
भूल चुके क़िस्सों को ताज़ा कर जाती है, 
 
फागुनी बयार कुछ याद दिला जाती है . . . 

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