प्राचीन प्रतीक्षा
शैलीपुराने समय का इंतज़ार, न फ़ोन न चिट्टी न तार!
संसाधन कम यातायात बेहद कम
अपनों को छोड़ कर दूर चले जाते थे,
नयी सम्भावनाएँ टटोलने, नयी ज़मीन, नये संसाधन खोजने,
जीवन कठिन था, पर्याप्त भोजन नहीं था,
पैदल या घोड़े से यात्रा करते थे
सड़कें-रास्ते नहीं
रेगिस्तान, नदी-नाले, और पहाड़ों से गुज़रते थे,
सुरक्षा भी नहीं थी, लुटेरों, जानवरों का डर था,
ऊपर ख़ुदा, नीचे इन्सानी 'जिगर' था।
जाते थे फिर भी, अपनों से दूर
भूखे पेट रहना, नहीं था मंज़ूर,
बस एक आस, कुछ पाने प्यास,
मन का विश्वास और अपनों की चाह,
लुभा ले जाते थे, नए क्षितिज की ओर . . .
कुछ घर से निकलते ही शिकार हो जाते थे,
कुछ रस्ता भटक, कहीं से कहीं निकल जाते थे,
कुछ को थोड़ा कुछ मिला तो, वहीं बस जाते थे,
रास्ते ख़तरनाक थे . . . इने-गिने ही मंज़िल पाते थे,
बस गिनती के भाग्यशाली ही, वापस लौट पाते थे,
शायद ही कोई अपनों से मिल पाते थे . . .
अपने, जो पीछे छूट थे, रास्ता देखते थे,
कैलेंडर थे नहीं, दिन देखने को
पत्थर या लकड़ी पर, दिनों के निशान खींचते थे,
जिन्हें गिन-गिन के सुकून खोजते थे,
आँखें पथराती थीं, साँसे चुक-चुक जाती थीं,
भूख, बीमारी से ज़िन्दगी उजड़ जाती थी,
दिन, माह, साल यातना बन जाते थे,
अन्तहीन प्रतीक्षा में घुट-घुट मर जाते थे . . .
लौटते पाते थे कोई जो बरस-साल बाद
वही 'दिनों के निशान', विगत को बताते थे,
अपनों ने क्या कुछ सहा, दास्ताँ बताते थे,
किसी गहरे, बहुत गहरे विषाद को चीरते . . .
सूखे, पीले, बेजान, कुछ पत्ते उड़ जाते थे,
अस्माँ से बूँद-बूँद आँसू झर जाते थे
अस्माँ से बूँद-बूँद आँसू झर जाते थे
1 टिप्पणियाँ
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बहुत सुन्दर रचना