उम्मीद का आख़िरी दीया

01-02-2020

उम्मीद का आख़िरी दीया

ममता मालवीय 'अनामिका' (अंक: 149, फरवरी प्रथम, 2020 में प्रकाशित)

आज बड़ी उत्सुकता से दीप जलाने उस खुले आसमान के नीचे गई।
अपनी अपेक्षा और महत्वकांक्षा के जंजाल को पीछे छोड़ प्रीत का नया रोशन उजाला करने, अपने मन के अंधकार को एक नई रोशनी देना, मानो एक ख़्वाब सा जो बन गया था मेरे लिए।

कुछ वक़्त पहले भी कोशिश की थी, कि एक नई उम्मीद जगा लूँ मन में। नए मायने दूँ ज़िन्दगी को जीने के, पर शायद नियति भी तुम्हारा और मेरा विरह देख न सकी। नयन रूपी  मेघ से अश्रु की निरंतर धारा मेरे मन रूपी दीप को बुझाती रही। बहुत कोशिश की  काश एक ही उम्मीद का दीया जला सकूँ , ताकि हमारे प्रेम रूपी दीवाली पर अमावस का पहरा न पड़े। लेकिन तुम्हारे विरह का दर्द, मेरी हर पूर्णिमा को अमावस करता रहा।

लेकिन क़िस्मत भी अधूरे क़िस्सों को पूरा करने का एक मौक़ा ज़रूर देती है। जैसे आज फिर एकादशी की रात्रि, अपने आप में एक अमावस को समेट कर, मानो एक आख़िरी रोशनी का लम्हा जीने आई हो। इस छोटे से ही लम्हे को फिर रोशन करने का अवसर मेरे लिए तुम्हारे साथ  ज़िंदगी जीने जैसा था। हमारे मन के आईने में आई हर कालिख को यह दीया मिटा दे, ये उम्मीद मन मे हिलोरें ले रही थी। इस उम्मीद के दीये को लेकर जैसे ही खुले आसमाँ के नीचे गई। हवा के एक झोंके ने दीप बुझा दिया।

लेकिन मेरे उम्मीद का दीप आज भी फड़फड़ा कर एक पल का जीवन माँग रहा था। मैं झट से उस दीप को अपने हाथों के आशियाने में छुपा कर, तुम्हारे साथ जीने कि ज्योति को बचा रही थी।
मगर तुम तो मानो उस हवा के झोंके जैसे बन कर आए, और मेरी आख़िरी साँस गिनती उस ज्योत को बुझा कर ख़ुद का अस्तित्व साबित कर रहे थे। उस लम्हे में हम साथ नहीं, एक दूसरे के विपरीत थे। मेरी उम्मीद का दीया बुझना नहीं चाहता था, और तुम उसे जलने नहीं दे रहे थे।

मगर आख़िर ये क्या हुआ, तुम्हारी ज़िद जीत गई और उम्मीद का दीया बुझ गया। मगर उस बुझती लौ में भी जीने की चाह झलक रही थी। वो बुझ कर भी, फिर जलने को तैयार हो रही थी।
उसे देख मैंने मन में एक बात सोची, क्यों न कुछ वक़्त इस झरोखे को मनमानी करने दी जाए। क्यों न उसे इस बात की तसल्ली दी जाए, लो उसने उम्मीद के दीये को बुझा दिया है।

मगर हक़ीक़त तो केवल मेरा मन जानता था। जब हवा के झोंके को लगा कि वो फिर एक बार अमावस लाने में सफल हो गया है, मैंने फिर एक ज्योत प्रीत की जला दी।
और उस हवा के झोंके को दिखा दिया, "हार ग़लत ज़िद की होती है,उम्मीद की नहीं"!

मैं मन रूपी दीप को सफल होता देख, कुछ पल वहीं ठहर गई, और देख रही थी, उसकी ख़ुशी जो उसके लिए एक ख़्वाब थी। उसका ख्वाब "अमावस को पूर्णिमा की चाँदनी देना", आज मुक़म्मल हो गया।

जानती थी, उसकी ये ख़ुशी बस कुछ लम्हे की है, ये उम्मीद का दीया ज़िन्दगी रूपी पूरी रात नहीं चल पायेगा। परंतु तसल्ली इस बात की थी, वो कुछ पल जीने की अपनी एक आख़िरी ख़्वाहिश तो पा ही जायेगा।

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